पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३८४

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पंचम अध्याय थ का स्वरूप हम देख चुके हैं कि, निर्गुण-पंथ का निर्माण होते समय, उन श्रादर्शों व भावनाओं का उसमें किस प्रकार प्रवेश होता गया जिनके मूलस्रोत का पता बौद्ध धर्म, वैष्णव संप्रदाय, वेदांत दर्शन, १ क्या निर्गुण तथा गोरखनाथ की योग परंपरा जैसे धर्मों, पंथ कोई मिश्रित दर्शनों वा रहस्यपंथों में लगाया जा सकता है। संप्रदाय है? अतएव, ऐसी दशा में यह प्रश्न प्रत्येक व्यक्ति के मन में स्वभावतः, उठ सकता है कि क्या निर्गुण पंथ कोई मिश्रित संप्रदाय तो नहीं है ? यदि सच पूछिए तो यह प्रश्न इस प्रकार भी किया जा सकता है क्या कबीर केवल एक संग्रही मात्र थे? क्योंकि पंथ के प्रारंभ करने का ध्येय कबीर को ही देना होगा। फिर भी उक्त प्रश्न का उत्तर किसी 'हाँ' अथवा 'नहीं' जैसे स्पष्ट शब्दों-द्वारा नहीं दिया जा सकता। निर्गुणी, सारतत्त्व को निकालनेवाला वा सारग्राही हुआ करता है। उसे सत्य के उस दाने को खोज निकालना पड़ता है जो छिलके के भीतर छिपा रहता है और सूप की भाँति उसे दाने को बचा लेना एवं भूसी को फेंक देना पड़ता है।* दादू के

सार संग्रहै सूप ज्यू, त्याग फटकि असार ।। टि०.२ ॥ 'कबीर ग्रंथावली, पृ० ५४ । साधू ऐसा चाहिये, जैसा सूप सुभाय ॥ ७८ ।। 'कबीर साहब की बानी, पृ०६।