पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३८५

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पंचम अध्याय ३०३ शब्दों में उसे बछड़े की भाँति, पूछ और सींगों की उपेक्षा कर, दूध पीने के लिए, तत्क्षस गाय के स्तन की ओर ही, दौड़ जाना पड़ता है।* जब निर्गुणी की ऐसी मानसिक स्थिति है तो यह स्वाभाविक है कि उसकी अपनी विचारधारा में भिन्न-भिन्न प्रकार के स्रोतों से प्राप्त भावनाएँ श्राकर मिल जाएँ। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि कबीर वा अन्य किसी वैसे निर्गुणी उपदेशक ने, 'दीनेइलाही' के प्रचलित करनेवाले अकबर की भाँति किसी नवीन धर्म की स्थापना करने के उद्देश्य से इन विविध प्रकार के मतों से जानबूझकर अच्छी अच्छी बातें चुन ली हों। कारण यह कि धर्म प्रयोगसाध्य न होकर विश्वासमूलक है। धर्म के लिए तर्क वा बुद्धि को प्रेरणा प्रर्याप्त नहीं हुआ करती। उसमें सब से अधिक आवश्यकता विश्वास की ही पड़ती है, बुद्धि उसमें गौणरूप से सहायक हो सकती । अकबर के 'दीने इनाही' के बदनाम होकर बंद हो जाने का कारण यही था कि उस शाही पैगंबर को उन बातों में स्वयं भी पूर्ण विश्वास न था जो उसके मिश्रित संप्रदाय के अंतर्गत आती थीं। तब ऐसी दशा में दूसरों के हृदयों में किस प्रकार विश्वास जमा सकता था अथवा प्रतीति उत्पन्न करा सकता था? जान-बूझकर प्रचलित किया जानेवाला मिश्रित संप्रदाय, यदि कोई हो सकता है तो उसमें एक ओर बुद्धिवाद रहेगा और दूसरी ओर व्यक्तिगत भावप्रवणता और इस विचार से किसी सार्वभौम अनुभूति को द्योतक वह नहीं बन सकता। परन्तु मिश्रित संप्रदाय एक अन्य प्रकार का भी होता है जो किसी व्यक्ति विशेष की कृति न होकर, विकास कहलानेवाले सामाजिक नियम-

गऊ बच्छ का ज्ञान गहि दूध रहे ल्यौ लाइ । सोंग पूछ पग परिहरै, अस्तन लागै धाइ ॥१५॥ 'दादू दयाल की बानी' भा० १, पृ० १८७।