पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पंचम अध्याय ३०५ उस ग्रन्थ में उन्होंने वेदांत के अद्वैतवाद का प्रतिपादन किया । सन् १२६० में ज्ञानदेव ने भगवद्गीता पर अपना पूर्णतः अद्वैतवादी भाष्य रचा । उत्तरी भारत में अद्वेत एवं विशिष्टाद्वैत ने अपनी कटुता का परित्याग किया और स्वामी रामानन्द के अद्वैतवादी गुरु ने अपने योग्य शिष्य को उस विशिष्टाद्वैती राघवानन्द के सिपुर्द कर दिया जिन्होंने उक्त बालक की रक्षा अपने योगबल की सहायता से की थी । गुरु के इस परिवर्तन का प्रभाव ऐसा नहीं पड़ा कि जिसस अपने युवाकाल अध्ययन किये हुए दार्शनिक सिद्धान्तों से किसी प्रकार का संवर्ष उपस्थित हो जाता। जान पड़ता है कि वैष्णव-भक्ति को उन्होंने इस प्रकार अप- नाया कि वह शङ्कराचार्य के अद्वैतमत में भी खप सकी। अपने धमगुरु के संप्रदाय के साथ जो उनका विरोध चला उसका कुछ न कुछ सम्बन्ध उन दार्शनिक प्रवृत्तियों के साथ भी रहा होगा जो उन्हें अपने सिद्धान्तों के कारण प्राप्त हुई थीं। इस प्रकार स्वामी रामानन्द में आकर अद्वैती सर्वात्मवाद का मेल शरीरधारो भगवान् के प्रति उस प्रेम से भी हो गया जो वैष्णव सम्प्रदाय की विशेषता है। उधर बौद्ध धर्म में भी अनेक परिवर्तन हुए । प्राचीन योग ने जिसका रूप पातञ्जल योगसूत्रों में लक्षित होता है, बौद्ध धर्म को प्रभावित किया और उसके कारण तिब्बत आदि देशों में बौद्ध योगाचार नाम की तन्त्र- पद्धति का अविर्भाव हुआ । यह तन्त्रपद्धति भी आगे चलकर निरी कामु- कता से प्रभावित हो, वज्रयान में परिणत हुई और सिद्धों की परंपरा चल निकली । उनके दुराचारों के विरोध में कुछ सिद्धों ने अपनी मूल परंपरा का परित्याग कर दिया और अपनी नवीन विचारधारा के अनुसार वीर्यरक्षा का प्रचार करने लगे। वज्रयानियों व सिद्धों ने इसके विपरीत प्रचार कर रखा था। गोरखनाथ इन पृथक् होनेवालों में एक प्रमुख व्यक्ति थे और उन्होंने उन प्रदेशों में अपने मत का प्रचार किया जिन्हें महाराष्ट्र व उत्तर प्रदेश कहते हैं । वैष्णवों ने आध्यात्मिक अनुभूति की