हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय खेद की बात है कि निर्गणमत पर पड़े हुए रामानंद के अंभाव को पूर्णतः स्वीकार नहीं किया जाता । बहुत सी धारणाएँ जिन्हें हम अाज कबीर के नाम से प्रचलित पाते हैं उनका पूर्वाभास रामानंद के प्राय: सभी शिष्यों में मिलता है। पीपा, रैदास, सेन और धन्ना के जो पद हमें भिन्न-भिन्न केंद्रों से उपलब्ध होते हैं उनमें कबीर से भिन्न भावों की अभिव्यक्ति नहीं दीख पड़ती। यदि वे रचनाएँ कबीर की ही कही गई होतीं और उनकी नहीं समझी जातीं जिन्होंने उन्हें वास्तव में लिखी हैं तो हमें उनके कबीर की ही कृति होने में किसी संदेह को प्रश्रय देने की आवश्यकता न होती । शिष्यों में ऐसी विचित्र समानता का कारण ढूँढने के लिए हमें उनके मूल स्रोत गुरु की ओर हो दृष्टिपात करना होता है। निर्गणमत के अंतिम स्वरूप की केवल वे हो विशेषताएँ रामानंद की ओर से नहीं मिली जो या तो अवतारों तथा मूर्तियों के विरुद्ध थीं अथवा जिनका सम्बन्ध दाम्पत्य भाव के रूपक से था। इनमें से प्रथम का मूल कारण इस्लामधर्म था जैसा कि पहले ही देख चुके हैं और दूसरा सूफीवाद की ओर से आया था जैसा कि हम आगे के अध्याय में पायेंगे। ( इस प्रकार हम देखते हैं कि निर्गुणमत के मूल स्रोत का पता चाहे हम जिस किसी प्रकार भी लगाना चाहें, सबसे अधिक उस वैष्णव संप्र- तरिए ॥ मधि निरंतर कीजे वास । दृढ़ है मनुवा थिर व सास" (सबदी १४४ पौड़ी हस्तलेख) अर्थात् भोजन करने पर भी मृत्यु होती है और न करने पर भी होती है। गोरख कहते हैं कि संयम द्वारा ही मुक्ति निश्चित है । मध्य का आश्रय ग्रहण करो तभी तुम्हारा मन दृढ़ होगा और तुम्हारा श्वास भी नियमित रूप से चलेगा।
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