३१० हिन्दी काव्य में निगुग्ण संप्रदाय प्रयुक्त उक्त कठोर शब्दों के नितांत विपरीत है । वे कहते हैं कि, 'ब्राह्मण होने पर भी कोई शाक्त किसी की दृष्टि में न पड़े और एक चांडाल वैष्णव के दर्शनों का सौभाग्य सब किसी को मिला करे । चांडाल वैष्णव को इस प्रकार गले लगाना चाहिए जिस प्रकार स्वयं भगवान् । ही मिल गये हों।* 'कटीले बबूल के समूचे बाग के बराबर चन्दन का एक छोटा सा टुकड़ा हुआ करता है और उसी प्रकार शाक्तों के समूचे नगर के बराबर वैष्णव की एक कुटिया हुआ करती है ।। कबीर ने अपने लिए केवल दो साथियों की इच्छा प्रकट की है जिनमें एक वैष्णव है और दूसरा स्वयं राम है। उनके अनुसार राम जहाँ हमें मुक्ति प्रदान करते हैं वहाँ पर वैष्णव हमें नाम का स्मरण करा देता है।" प्रश्न होता है कि क्या कबीर वैष्णव थे। साधारण प्रकार से हम कह सकते हैं कि वे वैष्णव थे, किंतु वे विष्णु वा उनके किसी अवतार वा मूर्ति की पूजा नहीं करते थे, उन्हें वैष्णव नाम देने के मूल कारण का इस प्रकार अभाव था और इसीलिए वैष्णवों के प्रति इतनी श्रद्धा प्रदर्शित करने पर भी उन्हें यह उपाधि नहीं दी गई। कबीर ने निम्नलिखित एक दोहे के द्वारा अपने तथा एक वैष्णव के बीच का मुख्य अन्तर प्रकट कर दिया है।
-साषत बाभण जिनि मिले, वैष्णो मिल चंडाल । अंकमाल दे भेटिए, मानों मिले गोपाल ॥१६।। t-चंदन की कुटकी भली, ना बबूर अँबराउँ । वैष्णौ की छपरी भली, ना साषत को बड़गाँउँ ।।१।। -मेरे संगी द्वे जणा एक वैष्णो इक राम । वो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै नाम ॥२४।। पृ० ४६।