पंचम अध्याय चत्रभुजा के ध्यान में, ब्रजवासी सब सन्त । कबीर मगन वा रूप में, जाके भुजा अनंत ॥३६॥ क० ग्रं॰, पृ० ६० । अर्थात् ब्रजमण्डल के भक्त चतुर्भुजी भगवान के ही ध्यान में मग्न रहते हैं, जहाँ कबीर उस रूप के ध्यान में लगा रहता है जिसकी भुजाएँ अनन्त हैं । दार्शनिक दृष्टिकोण में इस मौलिक अन्तर के रहते हुए भी कबीर का वैष्णवों के प्रति प्रेम व श्रद्धा प्रदर्शित करना इस बात को पूर्णतः स्पष्ट कर देता है कि वे उनके कितने ऋणी थे । परन्तु कतिपय विद्वानों की यह धारणा है कि वैष्णव संप्रदाय चा भक्तिवाद का उदय, इसकी धारा के उत्तरी भारत में प्रवर्तित होने के बहुत पहले दक्षिण में ईसाई धर्म के प्रभाव में हुआ था । जब निर्गणमत का ही मूल स्रोत ईसाई विचारधारा का परिणाम हो तब तो उसके कुछ चिह्न इसमें अवश्य मिल सकते हैं । डा. ग्रियर्सन को उत्तरी भारत के धार्मिक आन्दोलन के साथ ईसाई प्रभाव के इस दूरस्थ सम्बन्ध से संतोष नहीं । इसलिए उनके अनुसार "स्वयं रामानन्द ने ही ईसाई प्रभाव के कूप से उस अभिनव जल का भरपूर पान किया था।" किंतु डा. ग्रियर्सन की भांति,* रामानन्द के बारह शिष्यों में अथवा संतों के जोतप्रसाद' एवं 'शब्द' में क्रमशः ईसा के बारह शिष्य, उसके संस्कार भोज (Sacramental Feast) तथा जोहनियन' शब्द का अनुकरण ढूंढ निकालना भ्रमात्मक होगा । डा० कीथ ने इन धारणाओं का प्रतिवाद योग्यता से किया है। केवल संख्याओं की ही समानता के श्रोधार पर किसी परिणाम तक पहुँच जाना सदा निरापद नहीं होता। फ्रेजर ने बतलाया है कि, 'उक्त संस्कारभोज' सर्वत्र प्रचलित धार्मिक
- --'जर्नल आफ दि रायल एशियाटिक सोसायटी' (१९०७ )
पृ. ३११-३२८ ।