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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४०१

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पंचम अध्याय ३१६ २. क्या निर्गुणपंथ ही ऐसे किन्ही प्रयत्नों का परिणाम था ।* कबीर वेदांती व चैष्णव, सर्वात्मवादी व परात्परवादी अथवा ब्राह्मण व सूकी पृथक्-पृथक नहीं थे; वे सभी कुछ एक ही साथ थे। अंडरहिल जैसे लोगों को यदि चे 'यह' व 'वह' पृथक्-पृथक् दीख पड़ते हैं तो उसका कारण यही है कि कबीर का मत उक्त सभी प्रकार के सिद्धांतों के सार का प्रतिनिधित्व करता था। निर्गुणपंथ का प्रवर्तन संप्रदाय के रूप में नहीं हुआ था। इसका उदय ही उस सांप्रदायिकता के विरुद्ध हुअा था जो हिंदुओं के विरुद्ध मुसलमानों तथा उन दोनों धर्मों के अंतर्गत आनेवाले भिन्न-भिन्न संप्रदायों को एक को दूसरे के विरुद्ध निगुणपंथ लड़ते समय जाग्रत हुआ करती थी। कबीर की यह सांप्रदायिक है ? कभी महत्त्वाकांक्षा नहीं थी कि वे प्राचीन धर्मों को दबाकर उनके स्थान पर चलाये गये किसी नवीन धर्म के प्रवर्तक बन जायँ । उनको यह मान्य था कि प्रत्येक धर्म, चाहे वह सत्य के किसी भी अंश का प्रचारक हो, उसके पूर्ण रूप पर अधिष्ठित रहता है और यदि यथार्थ रूप से अनुसरण किया जाय तो, वह ईश्वर की प्राप्ति में सहायक होता है। जैसा जायसी ने कहा है कि, “परमात्मा तक पहुँचने के लिए उतने ही मार्ग हैं जितने अाकाश में तारे तथा शरीर में रोएँ हैं", अथवा जैसा टेनिसन का कहना है कि "परमेश्वर अपनी इच्छा को पूर्ति अनेक प्रकार से किया करता है" कबीर प्रश्न ।

  • -अंडरहिल 'वन हंड्रेड पोयम्स अाफ़ कबीर' (डा० रवीन्द्रनाथ

ठाकुर ) भूमिका पृ० २। +-बिधना के मारग हैं तेते । सरग नखत तन रोवाँ जेते ॥ -'जायसी ग्रंथावली' पृ० ३५३ ।