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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४००

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हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय हम निर्गुणपंथ जैनी उत्कृष्ट परंपरा के अस्तित्व की श्राशा किस प्रकार कर सकते थे और उस विकासपरक नियम के सर्वप्रमुख माध्यम होने के कारण, कबीर का इसमें भाग लेना भली भाँति समझा जा सकता है। यद्यपि कबीर को अपने सिद्धातों की अनेक बावे अपने रूप में उनके. गुरु से मिली थीं; फिर भी, क्या अपनाया जाय क्या न अपनाया जाय ? का निर्णय करते समय, उन्हें अपने ही विवेक का प्रयोग करना पड़ा था। उन्होंने अपने गुरु-द्वारा प्राप्त सभी बातें नहीं स्वीकार की और न उसी भौति, उन्होंने अन्य प्रकार के प्रभावों का तिरस्कार ही किया। उन्होंने वे सभी बातें नहीं अपनायीं जो उन्हें विशिष्ट जान पड़ीं। सत्य एवं सर्क की उनकी एक अपनी कठोर कसौटी थी। उस परीक्षा में खरी उतर जाने पर कोई भी बात उन्हें मान्य थी चाहे वह किसी भी स्रोत से आई हो । उसमें खरी न सिद्ध होने पर कोई भी बात उन्हें त्याज्य थी और उसका वे पूर्ण विरोध करते थे। इस निष्पक्षता के ही कारण इस पंथ ने सब किसी को संतुष्ट किया और इस नियम के अपवाद केवल वे ही व्यक्ति रहे जो किसी दूसरे के अज्ञान अथवा उसके प्रति किये गये अन्याय से लाभ उठाते थे और जो इस प्रकार अज्ञान के गर्त में पड़े थे अतएव, परिणाम यह निकलता है-सारग्राहिता का अर्थ यदि सभी हितकर प्रभावों के प्रति हृदय का खुला रखना है और उसके द्वारा भीतर के दोषों का निराकरण तथा बाहर के गुणों का ग्रहण ही उसका लक्ष्य है, तो कबीर पूर्ण सारग्राही थे। परंतु उक्त शब्द से अभिप्राय विचित्र काल्पनिक बातों के लिए उच्चाकांक्षापूर्वक प्रयत्न करना और उसके आधार पर एक नितांत नवीन कंथा सीकर तय्यार करना है (और मुझे भय है कि सर्वसाधारण की बोली में सारग्राहिता का तात्पर्य यही समझा भी जाता है तथा इसी अर्थ को दृष्टि में रखकर उक्त प्रश्न को भी उठाया गया था) तो, न तो कबीर ऐसे सारग्राही थे और न