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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४०३

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पंचम अध्याय ३२१ परंतु निर्गणपंथ न तो सत्य की किसी पार्श्वगत भावना पर आश्रित है और न ग्रह पूजन पद्धतियों वा कर्मकांड की विधियों को ही कोई महत्त्व देना चाहता है। सत्य के उसी पूर्णरूप को यह अपने लक्ष्य में रखता है जिसके विचार से कोई भी धर्म एक दूसरे का विरोध नहीं करता, वरन् एक दूसरे का पूरक अथवा कभी-कभी उसके साथ अभिन्न तक रहा करता है। इस विशेषता के कारण यह पंथ सभी धर्मों का सारस्वरूप कहा जाता है ।* इसी दृढ़ आधारशिला पर कबीर ने एकता मंदिर की उस अचल भित्ति का निर्माण किया था जो निर्गुणपंथ का अंतिम ध्येय है। इस दृष्टि से थियासाफिकल आंदोलन भी निर्गुणपंथ का ही एक नवीन रूप है। निर्गुणपंथ का अनुयायी होने के लिए यह आवश्यक नहीं जान पड़ता कि कोई अपने जन्मगत धर्म का परित्याग करे, क्योंकि कोई भी धर्म स्वतः बुरा नहीं कहा जा सकता; उसके ऐसा होने के लिए वह दृष्टिकोण उत्तरदायी है जिससे उस पर विचार किया जाता है। कबीर ने कहा है कि, 'वेद वा कुरान झूठे नहीं, झूठे तो वे हैं जो उनकी बातों पर विचार नहीं करते। उनके संबंध में पंडितों व मुल्लाओं की धारणाएं ही उन्हें झूठा बना देती हैं, और इसी विपरीत दृष्टिकोण की उपेक्षा निर्गुणी किया करता है। उसका काम धार्मिक विरोधों का साथ देना नहीं, जो सांप्रदायिक भाव रखनेवालों को विशेषता है । दादू कहते हैं, 'हे भाई, मेरा पंथ इस प्रकार का है- इसके भीतर कोई पक्षपात का भाव नहीं, क्योंकि इसका अाधार पूर्ण, एक एवं अवर्ण है। हम लोग किसी वाद-विवाद में नहीं पड़ते और संसार में सबसे न्यारे भी बने रहते हैं।

  • -'बीजक', पृ० ४८९ व 'कबीर ग्रंथावली', सा० ६, पृ० ३६ ।

+-बेद कतेव कहेहु मत झूठा झूठा जो न विचारे। . 'गुरु ग्रंथसाहब', पृ० ७२७ । -'दादूदयाल की बानी' भा० २, पद ६७, पृ० २६ ।