पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पाता, ३२२ हिन्दो काव्य में निर्गुण संप्रदाय श्रतएव, निर्गणपंथ का सांप्रदायिकता के साथ कोई भी साम्य नहीं। तुलना करने पर निर्गुणियों का मार्ग जो ज्ञान का मार्ग है, सांप्रदायिकों के अंधकार व अज्ञान के मार्ग से नितांत भिन्न जान पड़ेगा। मारवाड़ के दरिया साहब के शब्दों में, “मतवादी, तत्वनादी की बात नहीं समझ सूर्य के उगने पर उल्लू के लिए अँधेरी रात आ जाती है ।* परंतु निर्गुणमत के, सांप्रदायिकता के साथ, शब्द एवं भाव दोनों के अनुसार विरोध होने पर भी, इसमें सन्देह नहीं कि बहुत से पंथ जिनका उदय निर्गुणमत के बड़े-बड़े संतों के उपदेशों के आधार पर हुश्रा है और जो उनकी स्मृति को चिरस्थायी रूप देना चाहते हैं, वे निरे विधिनिर्वाहक संप्रदायों से भिन्न नहीं । यद्यपि उन सत्य के पुजारियों ने कर्मकांड के विरुद्ध आजीवन युद्ध किया था, फिर भी ये उनके नाम- धारी संप्रदाय उग्र विधिनिषेधों के प्रबल समर्थक हो गये हैं। उदाहरण के लिए कबोर-पंथ को ही लीजिये । इसमें प्रवेश करते समय सब किसी को उस पान के सुगंधित बीड़े का 'परवाना' लना पड़ता है जिसपर श्रोस की बूंदों से 'सत्यनाम' लिखा रहता है और परवाने के साथ ही वह मृत्यु के द्वार से होकर परलोक भी जाया करता है। चौका के नाम से इसमें वैष्णवों की षोडशोपचार' सात्विक पूजा को स्वीकार किया जाने लगा है। नानक के सिख धर्म में भी स्वर्णमन्दिर एवं अमृत के तालाब को (जिस कारण नगर का भी नाम अमृतसर पड़ गया है ) दिव्यता प्रदान कर दी गई है और 'ग्रन्थ' को पूज्य मानकर मूर्तिपूजा का स्थान पुस्तक-पूजा को दे दिया गया है। माला का प्रवेश, इनमें से प्रायः सभी में हा गया और 'नामसुमिरने' -मतवादी जान नहीं, ततवादी की बात । सूरज ऊगा उल्लुमा गिनै अँधारी रात । 'संतबानी संग्रह, भाग १, पृ० १२६ । ।