३२८ हिन्दी काव्य में निगुगा प्राय और कुछ नहीं है। यदि यह पद कबीर की ही रचना है तो जिस व्यक्ति ने वाह्यपूजन की निंदा की थी उसने इसका अभिप्राय शब्दशः नहीं लिया होगा । परन्तु उनके कबीरपंथी अनुयायियों ने इसकी रूपकता के उस वास्तविक रहस्य को विस्मृत कर दिया है (जिसे मैंने उपर्युक्त कोष्टकों में दिये गये संकेतों के सहारे, पद के अन्तर्गत स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है ) और इसे एक निरे कर्मकांड का रूप देकर उसका शब्दशः पालन करना चाहा है। जब इस प्रकार के प्राध्यात्मिक प्रतीक, विधियों का रूप ग्रहण कर नीचे स्तर पर आ जाते हैं और परमात्मा का मार्ग एक पंथ बन जाता है तो उस समय आध्यात्मिक क्षितिजि पर एक नया नक्षत्र उदय होता है और वही उन लोगों का मार्ग-प्रदर्शन करने लगता है जिन्हें उसके मिलने' की भूख रहा करती है। फिर उसके भी चारों ओर संप्रदाय संग- ठित होता है जिसका पतन होने पर इस प्रकार का चक्र पूर्ववत चलने गजमोतिन की चौक सुतहाँ पुराइए, तापर नरियर धोति मिठाई धराइए ।। केरा और कपूर बहुत विध लाइए, अष्ट सुगन्ध सुपारी मान मंगाइए। पल्लव कलस सँवारि सुज्योति बराइए, ताल मृदंग बजाइ के मंगल गाइए । साधु संग लै प्रारति तबहिं उतारिए, आरति करि पुनि नरियर तबहिं भराइए । पुरुख को भोग लगाइ सखा मिलि खाइए, युग युग छुधा बझाइ तो पाइ अघाइए। परम अंन दिन होइत गुरुहिं मनाइए, कह कबीर सतभाय सो लोक सिधाइए । कबीर साहब की बानी, पद २२८ पृ० १८८-६ ।
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