पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४०९

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पंचम अध्याय ३२५ लीजिये-'पूर्णिमा के दिन 'श्रादि मंगल' का गान कीजिये और गुरुन्तरणों को स्पर्श करके परमपद की प्राप्ति कीजिये। सबसे पहले अपने (हृदय ) को स्वच्छ करके उसे चंदन के लेप द्वारा (आत्मानुभूति की मनोवृत्ति धारण कर) पवित्र कर लीजिये । फिर उस पर नवीन वस्त्रों से बना चंदोवा ( परमात्मा की शरण की छाया ) खड़ा कीजिये । सतगुरु के लिए आसन लगाइये । उनके चरणों को धोकर उस पर बिठा दीजिये ( उन्हें सम्मानित कीजिये ) गजमुक्ता (विवेक ज्ञान ) द्वारा चौका दिलवाइये । उस पर धोती, नारियल व मिठाइयाँ रखिये। केले व कपूर भी ला रखिये । पाठों प्रकार की सुगंधियाँ, पान व सुपारी ( प्रेम निवेदन का भाव ) मँगा लीजिये । कलश (शरीर ) को ईश्वरभक्ति से विभूषित कर वहाँ पर दीपक ( ज्ञान का प्रकाश) जलाइये। मृदंग पर ताल दीजिये। अनाहत नाद को जाग्रत कीजिये । अन्य साधुओं के साथ कीर्तन कीजिये । प्रार्थना के अनंतर नारियल (प्रेमोत्थत अात्मा, प्रेम स्मृति वा सुरति ) को सुसजित कीजिये। उसे पुरुष के प्रति समर्पित कीजिये। सभी उपस्थित व्यक्ति मिलकर उसका आस्वादन कीजिये ( उसे प्रेमस्मृति द्वारा अनुप्राणित हो जाइये ) तभी पाप की वह (मिलन की) भूख मिट सकेगी जो युगों से जगी हुई थी, उसका स्वाद पूर्णरूप से लीजिये। आनंदित हृदय के साथ गुरु को प्रसन्न करने के प्रयत्न कीजिये और तब नेश्चय है कि, आप को वह लोक ( ईश्वरीयपद, परमपद) मिलेगा।" 'स्पष्ट है कि यह वैष्णव की षोडशोपचार सात्विक पूजा' के सिवाय

  • -पूग्नमासी अादि जो मंगल

गाइए, सतगुरु के पद पर सि परम पद पाइए । प्रथमै मंदिर झराइ के चंदन लिपाइए, नूतन वस्त्र अनेक चंदोव तनाइए ॥ तब पूरन गरु हेत असन्न बिछाइए, गुरु चरन पखालि तहाँ बैठाइए।