~ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय सूफी इस समय सर्व सम्मति से मुसलमान फकीरों की परंपरा के अंतर्गत गिने जाने लगे हैं । मुस्लिम मनोवृत्ति के ऊपर इस प्रभाव के, पड़ने का कारण यह है कि अगुती सर्वात्मवाद को, वे लोग इम्लाम के विरुद्ध होने पर भी कुरान की पंक्तियों में दर्शा दिया करते हैं । कबीर भी इसी बुद्धिसम्मत मार्ग को ग्रहण करते हुए प्रतीत होते हैं जब वे कहते हैं कि, "वेद व कुरान झूठे नहीं हैं, झूठे वे हैं जो उन पर विचार नहीं किया करते । *" क्या ही अच्छा हुआ होता कि कबीर की यह मनोवृत्ति स्थायी रही होती और निर्गुण मत के लिए यह उसी प्रकार एक विशेषता बन गई होती जिस प्रकार यह थियोसोफिस्ट की हो रही है और जिसके कारण थियोसोफिकल आन्दोलन, संसार के भिन्न भिन्न धर्मों को भ्रातृत्व के एक सूत्र में बाँधने के लिए. एक स्थायी शक्ति बनता जा रहा परन्तु कबीर ने प्रधानत: दूसरे ढंग से ही काम किया और निर्गण- पंथ ने भी उन्हीं का अनुकरण किया। उन्हें इन दोनों अर्थात् हिन्दुओं व मुसलमानों तथा दूसरे धर्मवालों से भी काम था, इसलिए उन्होंने सोचा था कि अपना द्वार सब के निमित्त मुक्त रखने के लिए, उन्हें चाहिए कि वे सभी परस्पर विरोधी धर्मों की परंपरागत मान्यताओं का परित्याग कर दें। इसी आधार पर निर्गुणी सभी धर्मों से अपने लिए अनुयायी आकृष्ट कर सके थे, किंतु पंथवाले उन पर अपना अधिकार अधिक दिनों तक नहीं कायम रख सके और शीघ्र ही उन विधियों व प्राचारों के स्तर तक आ गये जिन्हें वे पहले भी अपनाया करते थे। इसी भाँति शीघ्र उन नये धर्मोपदेशकों का भी प्राविर्भाव होता है जो पंथ की ही बातों का उपदेश नये नाम देकर दिया करते हैं और इस प्रकार वह चक्र भी चलने लगता है जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी है । निर्गुण पंथ के अन्तर्गत, इसी निमय के अनुसार, संप्रदायों का
- -वेद कतेव कहहु मत झूठे, झुठा जो न विचारे ।
गुरु ग्रंथ साहब, पृ. ७२७ ।