पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पंचम अध्याय ३३? एक जमघट सा लग गया। इन्हीं में से कुछ के नाम कबीरपंथ, दादूपंथ, नानकपंथ, कबीर शिष्य जग्गूदास द्वारा प्रवर्तित जग्गापंथ, जगजीवन- दास का सत्तनासीपंथ, मारवाड़ी दरिया का दरियापंथ, तुलसी साहब के अनुयायियों में प्रचलित हाथरस का साहिबपंथ तथा शिवदयाल का सधा-स्वामीपंथ हैं। अंतिम दो निर्गुणपंथ की बहुत आधुनिक शाखाएँ हैं। उपयुक्त विविधपंथ, पृथक् धार्मिक संप्रदायों के रूप में. निर्गुणपंथ के सिद्धांतों के उतने ही विरुद्ध हैं जिनने वे साधारण धर्म जिनकी निगुणियों ने भरपूर निंदा की है। इन उपदेशकां ने पहले के अवनत संप्रदायों का परित्याग कर नवीन पंथों की स्थापना की थी. किन्तु जब इनमें भी अज्ञान का प्रचार बढ़ने लगा तो इनके भी भीतर विरोध की अभिव्यक्ति दीख पड़ने लगी। सबसे पहली विरोध को ध्वनि तुलसी साहब की सुन पड़ी। यह देखकर कि नये नाम से किसी पंथ का प्रचार करने से भ्रम एवं अज्ञान की वृद्धि हो रही है उन्होंने निश्चय करें लिया कि मैं कोई भी पंथ अपने नाम न चलाऊँगा।* और उन्होंने निर्गणपंथ के अन्य अनुयायियों से भी सांप्रदायिक मनोवृत्ति का त्याग करने को कहा, किन्तु देवदुर्विपाक से इनके अनुयायियों ने भी एक पृथक् संप्रदाय चला दिया जिसका नाम साहिबपंथ पड़ा । उन्होंने विविध संप्रदायों के येयों को थितहृदय होकर समझाया कि भिन्न भिन्न नामों से पुकारे जाने पर भी निर्गुणपंथ वस्तुतः एक ही है । "परन्तु तुम उसे समझ कैसे सकोगे ? तुम तो नाम आधार पर चला करते हो। पंथ का अर्थ वर्ग वा संप्रदाय नहीं। इसका सीधा सादा अर्थ 'मार्ग' है और कबीरपंथ वह मार्ग है जिससे होकर

  • --तासे तुलसी पंथ न कीना । जगत भेख भया काल अधीना ।।

'घटरामायण' पृ० २३२ ।