हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय ब्रह्मानंद तुल्य, उसे 'ब्रह्मानंद सहोदर' कहकर स्वीकार किया है। मम्मट ने जो रस की परिभाषा दी है और जिसे लगभग सभी प्रधान ,साहित्यज्ञों ने भी अपनी दी हुई परिभाषाओं का मूल आधार माना है वह भी जबतक हम यह न जान लें कि वह उक्त श्रानंद की दशा के साथ केवल तुलना मान के लिए दी गई है, एक आध्यात्मिक पुरुष के ही अनुभव सी समझ पड़ती है। 'शृगारादिक रसों का श्रास्वादन, ऐसा जान पड़ता है मानों वह सामने ही स्फुरित हो रहा है, हृदय में पैठता जा रहा है और शरीर के प्रत्येक अंग में सम्मिलित सा होता जा रहा है। वह अन्य सभी विषयों को विस्मत सा करता हुआ ब्रह्मानंद सदृश अनुपम सुख का अनुभव उपलब्ध करा देता है और इस प्रकार एक अलौकिक चमत्कार का जनक बन जाता है।। हिन्दू साहित्यशास्त्र के मर्मज्ञों के अनुसार उच्च कोटि का काव्य निर्माण करने में ध्वनि' एक आवश्यक उपकरण का काम देती है। हिंदू साहित्यशास्त्र के भिन्न भिन्न मतों के एक सर्वांगीण पद्धति में संश्लिष्ट हो जाने के पहले ध्वनि-सम्बन्धी मत का एक पृथक् संप्रदाय हो था । फिर सभी मतों को उक्त प्रकार से संयोग हो जाने पर भी ध्वनि किसी न किसी भाव अथवा रस को जागृत करने की क्रिया-द्वारा विद्वानों अधिकाधिक प्रभावित करती गई और यद्यपि एक मतविशेष के उस अंधविश्वास का अाजकल श्राग्रह नहीं है कि कोई भी सत्यकाव्य बिना 'ध्वनि के संभव नहीं फिर भी यह माना ही जाता है कि ध्वनि अच्छे काव्य का एक अंग है। ध्वनि को यह महत्व प्रदान करने का कारण 1-पुर इव परिस्फुरन् हृदयमिव प्रविशन सर्वांगीणमिवालिंगन् अन्यत्सर्वमिव तिरादधत् ब्रह्मास्वादमिवानुभावयन् अलौकिक चमत्कारकारी शृङ्गारादिको रस: । 'काव्यप्रकाश', उल्लास ४, कारिका २७ ।
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