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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४२२

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३४० हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय उपेक्षित बन गई। और प्राकृत भो तो बहुत पहले से ही बोली नहीं जा रही थी। इनसे न तो उनके उद्देश्य की पूर्ति होती थी और न ये उनके लिए सुगम ही थी। न तो संत लोग इन भाषाओं को जानते थे और न जनता ही इन्हें समझ पाती थी। कहते हैं कि कबीर ने संस्कृत को न बहनेवाला 'कूप जल' तथा देशी भाषा को प्रवाहपूर्ण नदी का जल बतलाया था । जब कभी कोई संत संस्कृत की कविता करने बैठता तो उसके फलस्वरूप एक विचित्र बोली की सृष्टि हो जाती जो हास्यास्पद बन जातो और जिसे नकली संस्कृत कह सकते हैं। जिन स्थानीय भाषाओं का उन्हें दुहरी विवशता के कारण, प्रयोग करना पड़ता था वे भी काव्य रचना के लिए वैसी अनुपयुक्त न थीं। सर्वप्रथम संत कवि के लगभग एक शताब्दी पहले अमीर खुसरो ने मनोहर पद्यों की रचना की थी। जो हिंदी भाषा की सबसे महत्वपूर्ण बोलियों अर्थात् ब्रजभाषा, अवधी एवं खड़ी बोली में थे । परन्तु उन्होंने संभवतः गोरखनाथ का अनुसरण किया था, क्योंकि उक्त पदों में पद्यों में व्याकरण तथा पिंगल के नियमों की पूरी उपेक्षा के अतिरिक्त एक ऐसी अपनी वर्ण नशैली भी दीख पड़ती है जिसके कारण वे भद्दे से जान पड़ते हैं। सुन्दरदास जो कदाचित् सभी निर्गुणियों में एकमात्र शिक्षित व्यक्ति थे, उनकी इस साहित्यशास्त्र के प्रति प्रदर्शित उपेक्षा के कारण इतने सुब्ध थे कि उन्होंने विवश हो कर कह दिया था, "केवल तभी बोलो जब बोलने की आवश्यकता पड़े, अन्यथा मौन धारण कर बैठे रहो। पद्य-रचना तभी करो जब तुम्हें उन विषयों का ज्ञान हो और

  • -संस्कोरत है कूप जल भाषा बहता नीर ।

'संतबानी संग्रह' भा० १, पृ० ६३ । +-करम फलं फूलं भोगियं, पुनि जन्म मरणं । माला मृत पायं धामं जनउ मुख खायकं ॥ शब्दावली, भा० १, पृ० २४५।