षष्ठ अध्याय ३४१. तुम्हारी पंक्तियों में तुक, छन्द एवं अर्थ की अनुपमता ला सके। गाना तभी गायो जब तुम्हारा स्वर मधुर हो और कानों के सुनते ही उसे मन भी ग्रहण कर ले। ऐसी बानी की रचना कभी न करनी चाहिए जिससे तुकभंग एवं छन्दोभंग का दोष हो और जिसमें किसी अर्थ की भी अभिव्यक्ति न होती हो।x क्या ही अच्छा हुआ होता यदि ये निर्गुणो कवि साहित्यशास्त्र को अधिक चिंता न करते हुए भो, केवल साधारण व्याकरण एवं पिंगल- संबंधी नियमों को ही जानते होते तो थोड़ी सी कलात्मकता से भी इनके कथनों में चमत्कार की बहुत बड़ी वृद्धि हो गई होती । अपनी वर्तमान दशा में उनकी भाषा कभी-कभी इतनी भद्दो दीख पड़ती है कि जिन लोगों को काव्य एवं भाषा की चमक-दमक को एक साथ देखने का अभ्यास है उनके लिए ये सुन्दर नहीं जचा करतीं । परन्तु इन आत्मद्रष्टाओं के निकट हमें उनको अभिव्यक्ति के सौंदर्य के लिए नहीं किंतु भावना- सौंदर्य के लिए जाना उचित है । जैसा कि विलियम किंग्सलैंड ने कहा है "अात्मद्रष्टा का अधिकार सदा भाषा पर न भी रहे. फिर भी हमें चाहिए कि उस सत्य को ही हम ग्रहण करें जिसे व्यक्त करने का वह प्रयत्न करता रहता है और उसकी गूढतम सत्ता की अभिव्यक्ति x-बोलिये तौ तब जब, बोलिबे की सुधि होइ, न तो मुख मौन गहि चुप होइ रहिये ।। जोरिये तो तब जब, जोरिबे की जानि परै, तुक छंद अरथ अनूप जामै लहिये। गाइये तो तब जब, गाइबे को कंठ होइ , स्रवण के सुनत ही, मन जाइ गहिये । तुकभंग छंदभंग, अरथ मिलै न कछु सुन्दर कहत ऐसी वाणी नहिं कहिये ।। 'संतबानी संग्रह' भा० २, पृ० ११४ ।
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