पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४२५

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वह उनके । षष्ठ अध्याय ३४३ वे स्वयं व्यतीत करते थे उसी से उन्हें अपने प्रचारकार्य की प्रेरणा मिला करती थो और उनकी कविता का चाहे जो कुछ भी मूल्य हो, अन्तर्जीवन के व्यक्तीकरण पर ही आश्रित रहा करता है । संत कवियों की बानियाँ दो शीपकों के अन्तर्गत रखी जा सकती हैं जिन्हें 'साखी' व 'सबद', कहते हैं और ये दोनों शब्द मूलतः पर्यायवाची बनकर ही व्यवहृत होते आये जान पड़ते हैं। मालिक वा गुरु का कथन (शब्द ) ही परमात्मा के शब्द का साक्षी (साखी) बन जाता है । परन्तु अब ‘साखी' एवं 'सबद' काव्य-रचना के एक निश्चित रूप को प्रकट करनेवाले समझे जाने लगे हैं। 'सबद' का अर्थ आज कल गीत वा राग समझा जाने लगा है और 'साखी' का अभिप्राय किसी अन्य प्रकार की छन्दोमयी रचना वा दोहे से है। विषय की दृष्टि से इन दोनों में बहुधा कुछ अन्तर लक्षित होता है। जैसे 'सबद' का उपयोग भीतरी तथा अनुभव आह्लाद के व्यक्तीकरण के लिए किया जाता है वैसे ही 'साखी' का प्रयोग दैनिक जीवन में लक्षित होनेवाले व्यावहारिक अनुभव को स्पष्ट करने में हुआ करता है। सूफियों की शब्दावली के अनुसार 'सबद' का सम्बन्ध जहाँ 'कुदरत' के क्षेत्र से है वहाँ 'साखी' 'हिकमत' में काम आती है। 'कुदरत' की अभिव्यक्ति 'हक़ीक़त' ( सत्य) के उस प्रकाश द्वारा होती है जो मानव के भीतर उसके 'वजूद' (श्रावंद) एवं 'जौक' ( उल्लास ) को दशा में अव्यक्त रहा करता है। और 'हिकमत' का उदय अम्ल (बुद्धि) व हदीस (प्रमाण) को प्रेरणा से हुआ करता है ।* साखियों का क्षेत्र इस प्रकार जहाँ व्यवहार तक रहता है वहाँ सबद का लगाव आध्यात्मिक अनुभूति तक से रहा करता है। किंतु फिर भी ये साधारण प्रवृत्तियाँ ही हैं, इनके द्वारा उनका किन्हीं नपे-तुले वर्गों में विभाजित होना नहीं समझा जा सकता और कभी- कभी इनमें से एक दूसरे की जगह व्यवहृत हुआ देखा भी जाता है। -'अवारिफुल मारिफ' पृ० १७ ।