। 1 .३४२ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय के लिए असमर्थ. भाषा पर वैसा विचार न करें। सबसे बड़े कलाकार के समान इस बात को कोई नहीं जानता कि जिन साधनों के द्वारा अपनी कृति प्रस्तुत करनी पड़ती है वे कितने अपर्याप्त हैं" और न भाषा के सर्वश्रेष्ठ जानकार के अतिरिक्त इस बात को हो कोई समझ सकता है कि जिस जीवित सत्य से उसकी अन्तरात्मा अनुप्राणित है उसे भाषा कहाँ तक प्रकट कर सकती है?" निर्गुणियों में हमें न केवल भाषा की असमर्थता प्रत्युत्त उसके सुन्दर रूप के प्रति पूरी उपेक्षा भी देखने को मिलती है । परन्तु उनकी बानियों में वाह्य सौंदर्य का अभाव रहता है। फिर भी इसमें संदेह नहीं कि उनमें विषय का सौंदर्य बहुत कुछ रहता ही है । वास्तव में उत्तम काव्य को विशेषता उसके रूप में न होकर उसके विषय से ही सम्बन्ध रखती है। हाँ उसकी पहचान के लिए अभ्यस्त आँखें होनी चाहिए । किसी सरिता के स्वाभाविक सौंदर्य का अनुभव ऊबड़-खाबड़ पर्वत में अवस्थित मूलस्रोत में रहने के कारण बिना कष्ट उठाये नहीं हुआ करता । स्वभावतः पर्याप्त काव्यमय होने पर किसी भाव का ठीक-ठीक अनुवाद अन्य भाषा में नहीं किया जा सकता, किंतु यह मानी हुई बात है कि निर्गुणी कवियों की बहुत सी रचनाएँ अपने मूल रूपों से अधिक सुन्दर अनुवादों में ही जान पड़ती हैं; कारण यह कि अनुवाद करने पर काव्य का केवल सौरभ ही प्राप्त नहीं होता बल्कि उसकी कथनशैली का भद्दापन भी जाता रहता है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की रचना 'वन हंड्रेड पोयम्स श्राफ कबीर' एवं तारादत्त गैरोला के 'सांग्स आफ दादू' के उदाहरण इस सम्बन्ध में दिये जा सकते हैं। बात यह है कि उन लोगों ने परंपरागत अंधानुसरण की उपेक्षा सर्वत्र की है। फिर भी उनके प्रचार-कार्य को वैसा ही महत्व मिलता है जितना किसी अच्छे काव्य को मिल सकता था। जो जीवन -'रैशनल मिस्टिसिज्म', पृ० ६५ ।
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