. ३५० हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय विचित्र स्फूर्ति दीख पड़ती है जो साधारण प्रकार की बातों एवं दैनिक जीवन की घटनाओं को श्रावृत कर लेती है जिसके कारण उनमें विशेष महत्व की एक चमक सी लक्षित होने लगती है। कबीर की अंतर्दृष्टि ऐसी थी कि उसकी सहायता से वे प्रत्येक वस्तु के अंतस्तल तक पहुँचने में समर्थ हो जाते थे और क्षुद्र से क्षुद्र बातों व घटनाओं में भी वे महान् सत्य के ऐसे प्रतिबिंब देखने लगते थे जो साधारण व्यक्तियों के अनुभव की बात नहीं है। यहाँ पर एक रूपकात्मक चित्र का उदाहरण दिया जाता है जो बहुत साधारण होने पर भी एक ऊँचे सत्य का प्रतिपादन करता है "एक चींटी अपने मुंह में चावल लेकर चली थी कि उसे मार्ग में दाल मिल गई। वह दोनों को नहीं ले जा सकती। एक को ले जाने के लिए उसे दूसरे को छोड़ना ही पड़ेगा । इस महान् सत्य को हृदयंमम कराने का एक आकर्षक ढंग है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं और वह सत्य इस प्रकार है, "भौतिक तत्व पर आश्रित प्रापे के साथ श्रात्मतत्व का संयोग कभी संभव नहीं है। उनमें से किसी एक को तिरोहित होना ही पड़ेगा; दोनों के लिए कोई एक स्थान नहीं है ।" उनके प्रकृति-निरीक्षण ने भी उनके कवि होने में सहायता की है। जिन चित्रों का निर्माण वे इनके आधार पर करते हैं उनमें कला एवं उपदेश दोनों ही दृष्टियों से एक विशेष प्रकार का सौंदर्य लक्षित होता है। ऊँची से ऊँची शाखाओं के भी पत्तों से किसी वृक्ष को विरहित करनेवाले पतझड़ को वे उस मृत्यु का प्रतोक मानते थे जिसके लिए उच्च व नीच का कोई प्रश्न ही नहीं उठा करता । वे कहते हैं कि “फागुन 1 8-च्यूटी चावल ले चली बिच में मिल गई दार । कह कबीर दोउ ना मिले एकले दूजी डार ।। सं० ० बा० सं०, पृ० २२॥ t-- ब्लवैटूसकी: वायस् अाफ़ साइलेंस-पृ० १२ ।
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