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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४३७

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षष्ठ अध्याय मेरे लिए तूही एकमात्र प्रेमी है। और यह उसकी एक प्रतिरूप ही थी। झारसी भाषा के सूफ़ी कवियों ने प्रेमगाथा को ही ईश्वरीय प्रेम का रूपक बनाया और उसके पीछे इस परंपरा का पालन हिंदी के सूफ़ी कवियों ने भी किया। परन्तु हिंदू कवियों ने इसे कदाचित् तब तक स्वीकार नहीं किया जब तक सूफ़ियों के संपर्क में आकर कबीर ने तथा उनके अनुयायियों ने इसे महत्व नहीं दिया। हम देखते हैं कि उपनिषदों का उद्देश्य जितना रूपकों के आधार पर उक्त सम्बन्ध का वर्णन करना नहीं था उतना अनुभूति के बल पर उसे व्यक्त करना था। कृष्णभक्त वैष्णव कवियों के यहाँ भी मधुर भाव अथवा प्रेमरस का महत्व देखा जाता है। संत प्रदान की हो भाँति मीराबाई ने भी कहा है 'मेरे लिए तो गिरिधर गोपाल के सिवाय और कोई भी नहीं है। मेरा पति वही है जिसके शिर पर मोरमुकुट है। +" परन्तु कृष्णभक्त हिन्दीकवि कृष्ण के प्रति प्रदर्शित गोपियों के उत्कट प्रेम को अपने धार्मिक जीवन में 'सखी भाव' के रूप में अपनाते हुए उसे स्वानुभूत रूप में नहीं वरन् परानुभूत ( objective ) रूप में ही वर्णन करते हुए जान पड़ते हैं। वल्लभ संप्रदाय का सिद्धान्त है कि पुरुषोत्तम ही एकमात्र पुरुष है और जो कोई उससे प्रेम करते हैं उन्हें स्त्रो समझना चाहिए। राधावल्लभ संप्रदाय में प्रतीकात्मक भाव और भी रूपट हो गया है । स्वामी हरिदास की उम्र भावुकता ने रूपक को नाटक एवं कर्मकांड का आधार बना डाला है। इसके फलस्वरूप उनके द्वारा प्रचलित किये गये सखी वा टट्टी संप्रदाय में

  • :-एच० डबल्यू० क्लार्क 'दि अवारिफुल मारिफ (भूमिका पृ० २)।

-मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरा न कोई। जाके सिर मोरमुकुट मेरो पति सोई। शब्दावली, पृ० २४ । x-'दो. सौ बावन वैष्णवों की वार्ता', पृ० ५१७ ।