पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४४३

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षष्ठ अध्याय । और मैं तेरे ऊपर बलिहारी जाता हूँ।" "हे मेरे प्राणों से भी प्यारे अब भी मुझसे मिल जाओ। हे दीनदयाल, कृपानिधि मेरे अप- -राधों को क्षमा करो। मुझे चैन नहीं, और मेरा सारा शरीर व्याकुल है। आँखों से पनारे बहे जाते हैं, मांस जल गया और रक्त सूख गया। हड्डियाँ प्रतिदिन उभरती जा रही हैं। सारी इंद्रियाँ अपने स्वाद को में हार गई हों। मैं अपने दिन, तेरे मार्ग की ओर दृष्टि लगाये हुए तथा रात, तारों को गिनते हुए, काटा करता हूँ। जिन दुखों को मैं सह रहा हूँ वे वर्णनातीत हैं, किंतु तुझे विदित है कि मेरे भीतर क्या हो रहा है। धरनी कहते हैं कि मेरा जीवन बुझते हुए दीपक की भाँति अस्थिर हो रहा है, अंधकार घिरने जा रहा है, मेरे ऊपर प्रकाश डालो।" Jअपने व्यापक प्रेम-द्वारा अभिभूत होकर विरहिनी सारी सृष्टि को । x-बाला सेज हमारी रे, तूं प्राव, हौं वारी रे, दासी तुम्हारी रे, तेरा पंथ निहारू रे, सुन्दर सेज सँवारू रे, जियरा तुम पर वारूँ रे।। तेरा अंगना पेखों रे, तेरो मुखड़ा देखों रे, तब जीवन लेखों रे । मिलि सुखड़ा दीजे रे, यह लाहा लीजे रे, तुम देखे जीजे रे ॥ तेरे प्रेम की माती रे, तेरे रंगड़े राती रे, दादू वारणे जाती रे ॥ संतबानी संग्रह, भाग २, पृ० ६४ ।

  • -अवहूँ मिलो मेरे प्राण पियारे,

दीनदयाल कृपाल कृपानिधि, करहु छिमा अपराध हमारे ।। १ ।। कल न परत अति विकल सकल तन, न न सकल जनु बहत पनारे । मांस पचो अरु रक्त रहित में, हाड़ दिनहुँ दिन होत उघारे ।। २ ।। नासा नैन स्रवन रसना इंद्री स्वाद जुवा जनु हारे । दिवस दसों दिसि पंथ निहारत राति विहात गनत जस तारे ॥ ३॥ जो दुख सहत कहत न बनत मुख, अंतरगत के हौ जाननिहारे । धरनी जिव झिलमिलत दीप ज्यों होत अँधार करो उजियारे ॥ ४॥ वही, पृ० १२६ ।