३६० हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय कहता हूँ कि यदि मेरी हँसी हुई तो इसमें तुम्हीं हास्यास्पद बनोगे।" फिर, “हे स्वामी, मेरे घर आ जाश्रो । मेरा शरीर तुम्हारे लिए कष्ट पा रहा है। सभी कहते हैं कि मैं तुम्हारी पत्नी हूँ, किंतु मुझे इस बोत में आश्चर्य हो रहा है । किस प्रकार का प्रेमभाव तुम मेरे प्रति रखते हो ? जब मैं अभी तक तुम्हारी गोद में कभी नहीं सो पाई । क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो मेरे संदेश को हरि तक पहुँचा देगा और उससे कह देगा कि कबीर की दशा अब ऐसी हो गई है कि वह अब तुम्हें बिना देखे जी न सकेगा।" "यदि मैं तेरे साथ, मन एवं प्राणों में हिलमिल कर खेलता, यदि तू मेरी इस कामना को पूरी कर देता तो मैं कह देता कि तू सर्वशक्तिमान है ।' 'हे मेरे प्रियतम, तू मेरी सेज पर आ जा, मैं तेरो युवती दासी हूँ। मैं तेरी प्रतीक्षा में हूँ और तेरे लिए मैंने सेज सजा रखी है। मेरा हृदय तेरे लिए निछावर है। जब मैं तेरे आँगन में पहुँच कर तेरे दर्शन कर लेती हूँ तभी मेरे जीवन का उद्देश्य पूरा होता है। मुझे अपने मिलन का आनंद दो और अपने दर्शनजनित यश के भागी बनो। तेरे प्रेम ने मुझे पागल बना डाला है, मैं तेरे रंग में रंगा जा चुका हूँ। +-दीनदयाल सुने जबतें तबतें मन में कछ, ऐसी बसी है । तेरो कहाय के जाऊँ कहाँ, तुम्हरे हित की पट बंचि.कसी है। तेरो ही प्रासरो एक मलूक, नहीं प्रभु सों कोउ दूजो जसी है। एहो. मुरारि पुकारि कहौं, अब मेरी हँसी नहीं तेरी हँसी है । सं० बा० सं०, पृ० १०४ । 'कबीर ग्रं॰, पृ० १५२ ( पद ३०७ ) । =-हौं जानू जे हिल मिल खेलू”, तन मन प्राण समाइ ॥ .या कामना करौ परिपूरण समरथ हो राम राइ ॥ वही, पृ० १६१, पद ३०६ । ।
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