पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४४५

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षष्ठ अध्याय 2 इसे अब कहाँ जाकर बुझाऊँ ?+" फिर "म की ज्वाला से जलती हुई मैं दुःखित हो रही हूँ। मैं पेड़ों की छाया में ईसलिए नहीं जाती कि कहीं वे भी जन उठेंगे।" परमात्मा के प्रेमी का विरह-संदेश इतना करुण है कि वह दूसरों के हृदयों को दुखित किये बिना नहीं रहता। प्रेमिकाओं के संदेश साधारण संदेश नहीं। प्रेमिका अपने प्रेमपात्र में अपनी सारी श्रात्मा कँडेल देती है और वह शरीरधारी प्रात्मत्याग सा दीखने लगता है। कबीर कहते हैं कि, "मैं अपना शरीर जलाकर उसको स्याही से 'राम' को पत्र लिखू गा । मेरी हड्डियाँ मेरी लेखनी का काम देंगी और इस प्रकार मैं उसे. प्रेमपत्र भेजूंगा।" यद्यपि अपने प्रियतम का हृदय द्रवित करने के लिए प्रेमिका उसके निकट अपने दुःखों को प्रकट करती है। फिर भी उसे तब तक शांति नहीं जब तक वह उसे स्वयं उपलब्ध न हो जाय । प्रियतम की अनु- पस्थिति में उसकी विरहपीर ही उसे सांत्वना प्रदान करती है और उसे वह अपने हृदय में सुरक्षित रखा करती है । इस कारण जितना ही वह कष्ट झेजती है उतना ही वह उसे अपनाया करती है। कबीर कहते हैं कि, "मैं विरह की आग में जलनेवाली लकड़ी हूँ और धीरे- +--विरह जलाई मैं जलौं, जलती जलहरि जाउँ । मो देख्यां जलहरि जलै, संतौ कहाँ बुझाउँ ॥ (३६) क० ग्रं०, पृ० १०॥ -विरह जलाई मैं जलौं मो विरहनि के दूख । छाँह न वैसों डरपती, मति जलि ऊठ रूख ॥ ४६ ।। वही, पृ० ११ (टि०) -यहु तनु जालौं मसि करौं, लिखौं राम का नाउँ । लेखरिण करूं करंक की, लिखि लिखि राम पठाउँ ॥ १२ ॥ वही, पृ० ८।