सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३६४ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 'धीरे धूमिल होती रहती हूँ। यदि मैं इस प्रकार जल जाऊँ तो विरह भी जाता रहेगा।" फिर "इस शरीर को जलाकर मैं कोयला कर दूंगी, जिससे इसका धुश्रा अाकाश तक पहुँच जाय, किंतु कहीं ऐसा न हो कि राम मेरे ऊपर कृपा करके इस पर वर्षा करने लगे और यह बुझ जाय।" प्रत्येक वस्तु, जिसके द्वारा प्रेमिका अपने प्रियतम के प्रति प्रेम का दूरस्थ सम्बन्ध दृढ़ करती है, उसके लिए प्रिय बन जाती है। यदि उसका शरीर जलानेवाली आग का धुआँ उसके प्रियतम तक पहुँच जाय तो इस बात से भी उसे शांति मिल जाती है। अधिक से अधिक कष्ट झेलती हुई भी वह कभी निराश नहीं होती । उसका हृदय सदा प्रेम की प्राशावादिता के कारण उद्दीप्त रहा करता है। उसे अपने स्वामी में पूर्ण विश्वास है और वह जानती है कि मेरी सरल व निदोष -प्रार्थनाओं-द्वारा वह कभी न कभी मिन ही जायगा । पलटू का कहना है, कि, "मैं अपने प्रियतम को यह समझा बुझाकर । शीघ्र मना लूँगी कि सेवकों से सैकड़ों अपराध हो जाया करते हैं । आनंद एवं भय के मारे धड़कते हुए हृदय के साथ वह अपने प्रियतम से मिलने की प्रतीक्षा करती रहती है। उसके जीवन की इस महती अभिलाषा के साथ-साथ एक ब्रास भी बना रहता है और वह - ॐ हौं र विरह की लाकड़ी, समझि समझि धुधुपाउँ । छूटि पड़ौं या विरह तैं, सारीही जलि जाउँ ।। ३७ ।। क० ग्रं॰, पृ० १० । -यह तन जालौं मसि करौं, ज्यों धूवाँ जाइ सरग्गि । मलि वै रामः दया करें, बरसि बुझावै अग्गि ।। ११ ।। वही, पृ० ८। +-अपने पिया को मैं बेगि मनैहौं सौ तकसीर होत प्रभु जन से ॥ सं० बा० सं०, पृ० २२१ । []