पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४४७

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षष्ठ अध्याय. उसे सदा उद्विग्न बनाये रहता है । भक्त का हृदय इस भावना के कारण काँपता रहता है कि भगवान् के प्रति प्रदर्शित किया गया उसका प्रमः कदाचित्, वैसा नहीं है जैसा उसके लिए उपयुक्त होता अथवा स्वयं उसके हो भीतर वे गुण नहीं जिनसे वह अपना लिया जाता । कबीर कहते हैं कि, “मुझमें न तो वह प्रतीति है, न प्रेम-साधन की योग्यता है और न मेरे शरीर में वह सौंदर्य ही है। मुझे पता नहीं कि उस प्रिय- तम के साथ संयोग उपलब्ध करने की रहस्यमयी दशा में मेरी क्या स्थिति होगी। x" नानक ने भी इसी ढंग से अपने भाव प्रकट किये हैं। वे कहते हैं कि “मुझ में सब अवगुण ही अवगुण हैं। प्रियतम मेरे साथ मिलना कैसे. स्वीकार करेगा। न तो मुझमें रूप का सौंदर्य है, न मेरी आँखों में श्राकर्षण है और न मेरी वाणो में वह माधुर्य ही है। पत्नी के लिए यह स्वाभाविक है कि वह अपने पति के लिए श्रृंगार करे, किंतु सौभाग्यवती वही कहलाती है जिसे वह पसंद करता है।" इस प्रकार प्रेमिका विरहिणी के मित्र जो वहाँ तक पहुंच चुके हैं और जो इन रहस्यों से परिचित हैं उसे परामर्श देते हैं कि तुम अपने चेहरे पर से पर्दा उठा लो। प्रियतम के समक्ष कुछ भी संकोच करना x-मन परतीत न प्रेम रस, ना इस तन में ढंग । क्या जानू उस पीवसू, कैसे रहसी रंग ।। १६ ॥ क० ग्रं॰, पृ० २० । -सभि अवगुण गुण नहिं कोई, क्यों करि कंत मिलावा होई । ना मैं रूप न बंके नैणा, ना कुल ढंग न मीठे वैणा । सहज सिंगार कामिनि करि पावै । ता सुहागिनि जा कंत गु० ग्रं० सा०, पृ० भावै ।। ४०४॥