परिशिष्ट २ समस्या को हल नहीं करते और, जैसा मैंने पहले भी कहा है, उसे हल करने के लिए मेरे पास भी कोई साधन नहीं।" . मैंने इस हस्तलेख की स्वयं भी बड़ी सावधानी के साथ परीक्षा की है। इसमें संदेह नहीं कि पुष्पिका की लगभग डेढ़ पंक्तियों तथा हस्तलेख के शेष अंश में अंतर स्पष्ट है ( दे. "संपूर्ण संमत् १५६१ लिप्य कृत्य व्यणारस मध्य प्रेमचंद पठनार्थ मलूकदास बाचवि वाला सूं श्रीराम राम छ यादसि पूस्तकं दृष्ट्वा तादस लितं मया यदि शुद्धं तो वा मम दोशो न दियतं)।" पुष्पिका में एक प्रधान अंतर 'य' और 'व' के नीचे किसी बिंदु' का अभाव है जो शेष अंश में जहाँ कहीं भी संयुक्ताक्षर न हों अवश्य दिया गया मिलता है । अंतिम पृष्ठ में अक्षरों के दुबारा लिखे जाने के भी चिह्न वर्तमान हैं और यह बात उस अंश में पायी जाती है जो लाल रंग में लिखी है। पुष्पिका, पृष्ठांकन, और 'कबी' एवं 'राम' जो पृष्ठों के किनारों पर लिखे हैं सभी सर्वत्र दुहराये हुए हैं। दो भिन्न-भिन्न स्याहियों का भी प्रयोग हुआ है जिनमें से एक फीकी और दूसरी गाढ़ी है पुष्पिका की स्याही गाढ़ी है और पृष्ट का शेष फीकी स्याहो में लिखा हुआ है इसके कारण हस्तलेख के शेष अंश के विचार से, रंग में थोड़ी सी भिन्नता आ गई है। परन्तु यह बात भी हस्तलेख के महत्व को किसी प्रकार कम नहीं करती । हस्तलेख के अक्षरों की बनावट बहुत पुरानी है । इसमें कोई बात ऐसी नहीं जिससे इसे पुष्पिका के लेखा- नुसार प्राचीन न स्वीकार किया जाय और यही हम स्वयं उस पुष्पिका के सम्बन्ध में भी कह सकते हैं । 'व' एवं 'य' के नीचे बिंदुओं के न होने से ही हम इसे हस्तलेख का समकालीन मानने से इन्कार नहीं कर सकते । उदाहरण के लिए 'सरस्वती भवन बनारस' में सुरक्षित तुलसी- दास के हाथ की लिखी 'वाल्मीकि रामायण' ( उत्तरकाण्ड ) की भी, ॐ-दे० बुलेटिन प्राफ दि स्कूल आफ ओरियंटल स्टडीज, लंडन इंस्टिट्यूशन भा० ५ व भा० ६ पृ० ७४६-'सम प्राब्लम्स आफ इण्डियन फाइलालोजी)
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