पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४६८

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हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय केवल रहस्यवादी बातों को ही अपनाया तथा इनका गुप्त योगविद्या के विषय में अनुसरण किया, प्रत्युत, इनकी भाषा एवं शै'जी को भी स्वीकार कर लिया। 'वेलवेडियर प्रेस' वाले 'कबीर साखी संग्रह में लक्षित होनेवाली पूर्वी भाषा की छाप सदा मौलिक नहीं समझी जा सकती; उसमें कई स्थलों पर पश्चिमी 'सधुक्कड़ी भाषा' का भी प्रभाव दिखलाई पड़ता है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि कुछ राजस्थानी प्रभाव, जो अपभ्रश की भी कोई विशेषता नहीं, संग्रहकर्ता वा प्रतिलिपि- कारों के कारण नहीं पड़े होंगे। कबीर की रचनाओं के जितने भी हस्तलेख अभी तक मेरे सामने आये हैं वे या तो राजस्थान में वा किन्हीं राज- स्थानियों के लिए ही लिखे गये थे। 'ग्रन्थावली' का (क) नामक हस्तलेख भी, जिसका बनारस में लिखा जाना कहा जाता है या तो किसी राजस्थानी के लिए वा किसी राजस्थानी-द्वारा लिखा गया था और यह बात, उसके अंत में लिखित "वाँचवि वलासूं श्रीराम राम छ" से भी स्पष्ट है फिर भी ग्रंथावलीवाले इस संस्करण को स्वीकार करते समय एक कठिनाई श्रा खड़ी हो जाती है। 'ग्रंथावली' दो हस्तलेखों पर आश्रित है जिनमें से पहले का लिपिकाल सं० १५६१ विक्रमीय (सन् १५०४ ई. ) बतलाया जाता है और जिसे (क) कहा गया है तथा दूसरे का लिपिकाल सं० १८८१ विक्रमीय ( सन् १८२४ ई० ) समझा जाता है और जिसे (ख) को संज्ञा दी गई है। किंतु, इसमें संदेह है कि ( क ) नामक हस्तलेख उतनाही पुराना है जितना होने का वह दावा करता है। इस विषय में प्रो० जुने ग्नाश ने अपने सन् १९२६ 'वाले 'फारलांग व्याख्यानों में कहा है कि "संपादक ने जो फोटो वा प्रति- चित्र दिया है उससे इस बात का पता लगा लेना सरल है कि लिपि को मिती किसी दूसरे हाथ की लिखी है। संभव है कि हस्तलेख के दोनों लेखक समसामयिक ही रहे हों, किन्तु, बाबू श्यामसुन्दरदास इस 1