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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४७१

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परिशिष्ट २ ३८६ भी जो काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा की खोजों की रिपोर्ट में प्रकाशित हैं, यह भली भाँति मेल खाता है। (क) वाला हस्तलेख अन्य लेखों से केवल एक ही बात में भिन्न है और वह संगृहीत पद्यों की संख्या है। (क) वाले हस्त लेख में सबसे कम पद्य हैं और यह इसी कारण सबसे प्राचीन भी है। रजबदास को 'सर्वांगो' के अन्तर्गत, ईसा की १८वीं शताब्दी के पूर्व भाग में संगृहीत, कबीर की रचनाएँ भी इसी प्रकार की हैं। यह भी सम्भव है कि दादूदयाल ( जन्म संवत् ३६०१- १५४४ ई०) को कवीर को बानियाँ इसी रूप में पहले-पहल मिली थीं और इन्हीं के श्रादर्श पर उन्होंने अपनी बानियाँ रची थीं। अतएव यह असम्भव नहीं कि कबीर की रचनाओं का यही रूप सन् १५०४ ई० में भी वर्तमान था जबकि (क) हस्तलेख की प्रति प्रस्तुत की गई थी। परन्तु हस्तलेख की प्रामाणिकता एक बात और उसके विषय की प्रामाणिकता, दूसरी। और दृष्टिकोण के अनुसार मैं 'कबीर- ग्रन्थावली' को पूर्णतः विश्वसनीय नहीं मानता। इसके अन्तर्गत कुछ ऐसे पद्य हैं जो कबीर के नहीं हो सकते । कबीर के चमत्कारों के प्रसंग वाले सभी पद्य ऐसे ही हैं। कबीर अपने पूर्ववर्ती संतों के चमत्कारों में चाहे विश्वास भी करते रहे हों, तो भी उनके जैसे सत्यवादी व्यक्ति ने अपने सम्बन्ध में झूठी बातें नहीं कही होंगी। फिर इनमें 'कथता वकता सुरता सोई' से प्रारम्भ होनेवाला एक पद्य पाया है जिसे 'श्रादिग्रन्थ' में सिखों के प्रथम गुरु नानक का कहा गया । यह भी सम्भव है कि 'ग्रन्थावली' के सम्पादक के बजाय ग्रन्थ के सम्पादकों से ही यह भूल हो गई हो क्योंकि यह पद दादूपंथियों की 'पंच बानी' में भी पाया है और वे लोग नानक के दादू से पूर्वकालीन होने पर भी उनकी बानियों के प्रति कोई श्रद्धा नहीं प्रदर्शित करते । तो भी जबकि इस विषय में कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता इस sut ॐ--पद ४२, पृ० १०२ ।