! हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय भी करता है और उस पर शासन भी रखता है। ( यह नियम यद्यपि अंतिम नहीं है फिर भी ) हम देखते हैं कि वह हमारी दासी और शुभ- चिंतक बन जाती है। इस प्रकार वह मध्यम मार्ग ही, जिसमें न तो उसका पूर्ण परित्याग हो और न उसका ग्रहण हो अथवा जसा कयोर ने अन्यत्र कहा है. जहाँ काजल कोठरी में बिना किसी धव्या के लगे रहा जा सके, श्रावश्यक हो जाता है । यही द्वैधीभाव की माया निगुणी संतों के मध्यम मार्ग की आधार-स्वरूपिणी है । पृष्ठ १७५ पंक्ति १ । प्रत्यावर्तन की यात्रा-निर्गुण संप्रदाय के सभी संत इस यात्रा को, पीछे को फिर लौटना बतलाते हैं। कबीर इसे 'उलटी चाल' कहते हैं जो तलवार की धार पर चलने के समान रज पदास कहते हैं कि मंसार के लोग सीधे ढंग से आगे बढ़ते हैं, किंतु संत वह है जो पीछे की ओर चलता है। यारी इसे उलटी बाट कहते हैं। पौर शिवदयाल इसका नाम उलटी धार रखते हैं । पृष्ठ १७८ पंक्ति २३ । अलल ( अथवा अनल पच्छ )-यह उस 4 , +-(कबीर) माया दासी गंत की, ऊभी देइ असीस । विलसी अरु लातौं छड़ी, सुमिरि सुमिरि जगदीस ।। वही (३३-१०। + -कहै कबीर कठिन यह करणी,जैसी पंडे धारा। उलटी चाल मिले परब्रह्म को, सो सतगुरु हमारा ।। वही ( १४५-१७०)
- -उलटा चलै सु प्रौलिया, सूधा गति संसार ।
जन रज्ज्व यु जागिले, इनका यही विचार ।। 'सर्वागी' ( २४-६) x-हरिमद मत वाले रहत हैं, चलत उवट की बाट । प्रेम पियाला सुरति भर पियो, देखो उलटी बाट । 'म बा०', (प्र० ४१८)