४१८ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय का कठिन कार्य इस प्रकार सुगम बन जाता । यदि हम हृदय से चाहे तो हमारा चंचल मन, हमारे व्ययशील व अनियमित प्राण तथा बहकने- वाली इंद्रियाँ सभी वश में श्रा जाय ।। और जब ऐसा हो जाय तो समझ पड़ेगा कि वेही चोर ( इंद्रियों के द्वारा कार्य करनेवाला मन ) जो हमारे आध्यात्मिक धन की लूट मचा रहे थे, स्वर्य हमारा धन बन गये।। पृष्ठ १६६ पंक्ति १५ । सुरति-बाबू सम्पूर्णानन्द समझते हैं कि सुरति शब्द स्रोत का बिगड़ा हुअा रूप है जिसकी परिभाषा "हिन्दू दार्शनिक ग्रंथों में ( उनकी दृष्टि में ऐसा कहते समय कदाचित् पातंजल योगसूत्र पर किया गया योगवार्त्तिक नामक भाष्य रहा होगा ) चिस- वृत्तियों का प्रवाह दी गई है।" गुलाल ने भीखा को बतलाया था कि सुरति और मन एक ही वस्तु है ।। दादू का कहना है कि "चेतन वह मार्ग है जिस पर सुरति अग्रसर होती है। किंतु मैंने इमे' 'स्मृति' शब्द से निकला हुश्रा माना है और ऐसी दशा में इसका तात्पर्य --दादू सहजै मन सधै, सहजै पवना सोइ । सहज पंची फिर भये, जे चोट विरह की होइ ।। बानी, भा० १ पृ० ४२-१२७ । V--जबलग थो अँधियार घर, मूस थके सब चोर । जब मंदिल दीपक बल्यो, वही चोर धन मोर ॥ सं० ० बा० सं० (भा० १) पृ० १०३ । -विद्यापीठ (त्रैमासिक पत्रिका), भा॰ २, पृ० १३५ । +-भीखा ! यही सुरति मन जानी । सत्य एक दूसर मति मानौ ॥ म. बा०, पृ० १६६ । +-चेतन पैंडा सुरति का, दादू रहु ल्यौ लाय । बानी, ( वे प्रे० भा० १) पृ० ८६ ।
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