पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/५०१

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परिशिष्ट ३ ४१६ वह नहीं रह जाता है जो साधारणतः लिया जाता है । इसके साथ निर्गुणियों के इस साधनामार्ग की भी संगति लग जाग्रंगी जो ‘उलटी 'चान' को निर्दिष्ट करता है और यह उस अभिप्राय के भी विरुद्ध नहीं जायगा जो बा० सम्पूर्धनन्द का है। स्मृति भी चित्तवृत्तियों का प्रवाह ही है, यद्यपि यह उलटी दिशा की ओर चलता है। वास्तव में सुरति की सहायता से ही उलटो चाल संभव हो पाती है। मेरी इस राय का समर्थन छान्दोग्य उपनिषद् से भी हो जाता है जो सारे बन्धनों से छुटकारा पाने के लिए स्मृति का उपलब्ध कर लेना आवश्यक मानती - 'स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः ( १७-२७-२ ) । राधास्वामी सत्सग वाले लोग सुरति व सुरत का अर्थ जीवात्मा वा व्यक्तिगत आत्मा लगाते हैं । इसका एक अर्थ प्रेम ( सु-रति वा सुरत ) भी लगाया जा सकता पृष्ठ २२२ पंक्ति २२ । अजपाजाप --- रज बदास ने इसकी परिभाषा देते इस वह स्मृति ठहराया है जो भौतिक शरीर के अंतर्गत शब्द एवं श्वास क्रिया की ओर निर्देश करती है। एक अन्य स्थल पर उन्होंने कहा है कि "अजपाजाप की साधना तब हुआ करती है जब कि आत्मा, मन, पवन तथा सुरति को श्राप से श्राप ग्रहण कर लेता है और - + -यह बिचारि नहि करउ हट, झूठ सनेह बढ़ाइ । मानि मातु कर नात बलि, सुरति बिसरि जनि जाइ ॥ रामचरितमानस (२-५६)। -पालो तब नाम कुल्ल करतार, बाँध कर चढ़ी सुरत का तार । मीन मत चढ़ गइ. उलटी धार, मकर गत पकड़ा अपना तार ।। सारबचन, (१-२१३ ) । x-सरिर सबद अरु सास करि, हरि सुमिरन ति ठाँव । जन रज्जब प्रातम अगम, अजपा इसका नाँव ।। सर्वागी ( १६ १ )।