पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/५०३

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> परिशिष्ट ३ ५२१ है।"+ इस स्थिति को श्राप से श्राप लाने के लिए हमें किसी वाह्य साधना में लगना आवश्यक नहीं, क्योंकि इसके लिए उपयुक्त सारा साधन हमी भीतर ही वर्तमान है। रजब ने कहा है कि मार्ग तो पथिक के ही भीतर विद्यमान है। बुल्ला ने कहा है कि हमें उस काशी तीर्थ में ही स्नान करना चाहिए जो हमारे शरीर के भीतर अवस्थित है।x कबीर तो काया के ही भीतर परमात्मा के साथ-साथ करोड़ों काशी जैसे तीर्थों को भी देखते हैं ।। गुलाल ने इसो कारण साधक से कायाविषयक पूर्ण ज्ञान उपलब्ध कर लेने की सम्मति दी है क्योंकि इसके भीतर मुक्ति का एकमात्र मार्ग अजपाजाप चल रहा है । । इस प्रकार श्राप से श्राप चलनेवाला भजन साधक को उसके लक्ष्य तक बिना किसी बाहरी सहायता के ही उसी भाँति पहुँचा देता है जिस भाँति हनुमान बिना किसी जहाज की सहायता के लंका द्वीप तक कूद • पहुँचे थे।। -~-अजपाजाप सकल घट बरते, जो जाने सोइ पेषा ।। म० ब०, पृ० १ । -संतो ! बाट वटाऊ माहीं । सो प्रापण समझे नाहीं ।। बिरला गुरु मुषि पावै । सो फिर बहुरि न आवे ।। सर्वांगी (४०-२ )। x-काया कासी घट करहु नहान । युग युग पावहु पद निर्वान ।। म० बा०, पृ० २० । -काया मधे कोटि तीरथ, काया मधे कासी । काया मधे कंवलापति, काया मधे वैकुंठवासी ॥ क० ग्रं०, ( ४५-१७१ )। V-काया परचे जानहु प्रानी । अजपाजाप मुक्ति के खानी ।। म बा०, पृ० १। L-नेह विनावै सौं किया, ध्यान धऱ्या बिन अंक । रज्जब मनौ जहाज बिन, हणवत पहुँच्या लंक ।। 'सर्वांगी' ( १६ ४)। इसके (पहले का पृष्ठ भी देखिये)। .