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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/५१०

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४२८ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय के किनारे वंशीवादन कर रहा है। उसके ललाट पर सौंदर्य उत्कृष्ट रंग व चातुर्य की अभिव्यक्ति स्पष्ट दीख रही है। गंगा व यमुना इन दोनों की लहरों को संयत करके उस ज्योति का निरीक्षण करो और अपनो कादरता का परित्याग कर दो । अनहद को छोड़ कर उस सुषुम्ना- द्वारा प्रागे बढ़ो जहाँ प्रचंड वायु बह रहा है । धारा के अंतर्गत ॐकार' निवास करता है जो नाशमान है। यहीं पर अपने स्वामी को पहचान लो और उसके साथ हो लो। यही पर तुम उस सिंहिनी (माया ) की भी पहचान करोगे । धर्मदास कहते हैं कि कबीर ने उन्हें उस अरारीरी पुरुष के दर्शन करने का आदेश दिया था जिसके सिंहासन व छत्र श्वेत हैं । जिस देश में उसका निवास है वह भी श्वेत है और वृक्ष तथा फूले हुए कमल भी श्वेत हैं । उसे केवल श्वेत हंस ( विशुद्ध जीवात्मा) ही प्यारे हैं। 23-त्रिकुटी के नीर तीर बाँसुरी बजावै लाल, भाल लाल से सबै सुरंग रूप चातुरी । यमुना ते और गंग अनहद सुरतान संग, फेरि देखु जगमग को छोड़ देवै कादरी । वायु प्रचंड चंड बंकनाल मेरु दंड, अनहद को छोड़ दे आगे चल बावरी । ॐ कार धार वास इन हूं का है विनास, खसम को साथ करि चीन्ह ले तू नाहरी । जन वीरू' सतगुरु सबद रिकाब धरु, चल सूर जीत मैदान घर आवरी । म० बा०, पृ० २।

-अमर लोक में पुरुष विदेही, निगम न पावै पारा हो ।

सेत सिंहासन सेत छत्र सिर, सेतहि हंस पियारा हो । सेत भूमि जहँ मेत वृच्छ हैं, सेतहि कमल सुहाला हो । शब्दावली, पृ० ३२ ।