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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/५०९

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परिशिष्ट ३ ४२७ वाला वह मणिदीप गगन में निराधार बना हुआ जलता ह।"शाह फकीर ने एक उस खेल का वर्णन किया है जिसमें हीरा दूर देश से उप- लब्ध किये ये अनुपम माणिक के ऊपर अपना प्रकाश फैलाता है। मन का पक्षी श्वेत लहों पर उड़ा करता है और जिसमें उस अगम का रूप स्फटिकमयी उज्ज्वलता में हो भासित होता है ।x बुल्ला ने अपने अनुभव का,अानंद से भरे शब्दों-द्वारा त्रिकुटी की झिलमिली ज्योति, जगमगाते स्वर, अनहद की दुन्दुभी के गंभीर गर्जन, वहाँ पर विद्यमान अनुभवी, पश्चिम घाट वा पिछवाड़े के घाट की ओर लगायी जानेवाली दौड़, उत्तरी मार्ग पर होनेवाले भ्रमण तथा, अन्त में, उस उज्ज्वल निरपेक्ष पर- मात्मा का भी वर्णन किया है ।+ यारी के गुरु बीरू ने अपने अानंद के अनु- भव का बड़ा सुंदर विवरण दिया है । वे कहते हैं कि हमारा लाल त्रिकुटी 1-सुन्दर सेत सुहाई रे मन । सुन्दर सेत सुहाई । उज्ज्वल उदिति छवि बरनि न पावै स्वत फिट क रोशनाई । अनर जरैः परै अधारहि मैं मानिक जोत जगाई ।। म० बा०, पृ० ५५ । x-लाल वेवुनी लाल फिरंगा हीरा ऊपर बलता है । मन परिद जोर पवन मंग स्त्रन लहरि पर चलता है ।। स्वत फिटक है अगम निशानी, तागे पारी खेलता है । 'शाह फकीरा' खेल रचा है, पांच तीन दल फुलता है । वही, पृ० १८ । +---सोहं हंमा लागलि डोरी । सुरति निरति चढ़ मनुप्रा मोरी ॥ झिलमिल झिलमिल त्रिकुटी ध्यान । जगमग जगमग गगना ताम ॥ गहगह गहगह अनहद निशान । प्रारण पुरुष तहाँ रहल जान ।। लहरि लहरि दउड़े पछिव घाट । फहर फहर चले उत र बाट । सेत बरन तहँ पापै पाप । जन बूला सोइ माई बाप ॥ सं० बा० सं०, भा० २, पृ० १७१ ।