सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( २७ ) है और कहा है कि इस बात की पुष्टि कबीर की पंक्ति "पहले दरसन मगहर पायो फुनि कासी बसे आई" से होती है । कबीर को स्वा. रामानंद का शिष्य मानने के प्रति दृढ़ आस्था भी डा० बड़थ्वाल के निबंध की एक विशेषता है क्योंकि इसका समर्थन भी उन्होंने व्यास जी के एक पद एवं 'बीजक' की कुछ पंक्तियों के उदाहरण देकर उनकी व्याख्या-द्वारा किया है। कहना न होगा कि डा० बड़थ्वाल ने उपर्युक्त तीनों ही बातों के लिए अपने परिणामों को निश्चित रूप देते समय किन्हीं पुष्ट प्रमाणों से सहायता नहीं ली है। प्रत्युत, अपनी कल्पना से ही अधिक काम लिया है । काशी से गोरखपुर के पास पास तक के प्रदेश में कहीं का भी रहने- वाला कवीर का जुलाहा कुल हिंदुओं, बौद्धों अथवा नाथपंथियों के प्रभाव में यों भी आ सकता था। काशी, हिंदू संस्कृति का एक प्रधान केंद्र है और उससे लगे हुए सारनाथ से लेकर गोरखपुर के निकटवर्ती कई स्थलों तक का प्रदेश बौद्धधर्म एवं नाथपंथ का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र बहुत पहले से ही माना जाता पाया है और ऐसी दशा में उपर्युक्त बातों को कहीं अन्यत्र ढूढने की वैसी आवश्यकता नहीं जान पड़ती। इसी प्रकार "पहल दरसन मगहर पायो फुनि कासी बसे आई" में भी 'दरसन पायो' का अर्थ 'जन्म लेना' लग ने के स्थान पर किसी महापुरुष वा परमात्मा का साक्षात्कार' करना ही अधिक समीचीन होगा । केवल इसी के बल पर वा कतिपय अन्य ऐसे ही संदिग्ध पंक्तियों के भी सहारे मगहर को कबीर का जन्मस्थान मान लेना उचित नहीं जान पड़ता। डा० बड़थ्वाल ने 'बीजक' के एक पद की "प्रापन पास किया बहुतेरा" पंक्ति के 'पास' को इसी प्रकार 'अस' मानकर उसमें प्रांगे आनेवाली "रामानंद रामरस माते" पंक्ति के 'रामानंद' को स्वा० रामानंद का नाम मान लिया है और इसके द्वारा उन्होंने कबीर व रामानंद के शिष्य-गुरु सम्बन्ध की पुष्टि की है। परन्तु इन दोनों पंक्तियों के अनंतर आनेवाली