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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/५३

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( २६ ) . करते समय उन्होंने इस परिचय-सम्बन्धी अंश को कुछ अधिक विस्तृत व व्यवस्थित रूप देने का प्रयत्न किया है और वही विस्तृत रूप ही प्रस्तुत ग्रंथ में सम्मिलित है, किंतु वह भी यथेष्ट नहीं कहा जा सकता। इस निबन्ध में उनके प्रमुख वर्ण्य विषय 'निर्गुण सम्प्रदाय' के क्रमवद्ध परिचय की भी कमी खटकती है और जान पड़ता है कि लेखक का ध्यान जितना इन संतों की विचारधारा और इनकी साम्प्रदायिक

  • मान्यताओं की ओर था, उतना इनके उक्त समुदाय के स्वरूप वा

उसके विकास की ओर नहीं था । संतों के व्यक्तिगत जीवन तथा उनके उक्त सम्प्रदाय के संघटन व क्रमिक-विकास की पूर्व-पीठिका उनकी विचारधाराओं के स्पष्टीकरण में भी बहुत कुछ सहायता प्रदान करती और उसके द्वारा हमें उनकी वास्तविक देन का भी एक सुव्यव- स्थित रूप दीख पड़ता। अस्तु । कवीर के सम्बन्ध में अनेक लखकों ने बहुत कुछ लिखा है और डा० बड़थ्वाल ने भी उन पर विशेष ध्यान दिया है। उनके कुल को उन्होंने मुसलमान माना है परन्तु इतना और भी जोड़ दिया है कि वह कुछ ही दिनों पहले से धर्मांतरित होकर आया था। आलोच्य निबंध में तो उन्होंने इसके कारणों का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है, किंतु अन्यत्र कहा है कि कबीर-द्वारा अपने को 'कोरी' भी कहने से हमें इसकी मोर संकेत मिलता है । इसी बात के आधार पर उन्होंने बंगाल की ओर पाये जानेवाले कतिपय वयन-जीवी जुगियों वा जोगियों के साथ भी उसका पूर्व सम्बन्ध जोड़ा है और कबोर की रचनाओं में गुरु गोरखनाथ के प्रति प्रदर्शित की गई श्रद्धा से भी कुछ समर्थन पाकर उन्होंने यह परिणाम निकाला है कि मेरी समझ में कबीर भी किसी प्राचीनतया कोरी किन्तु तत्कालीन जुलाहा कुल के थे जो मुसलमान होने के पहले जोगियों का अनुयायी था।" इसी प्रकार उन्होंने कबीर के जन्मस्थान को भी काशी न मान कर उसे प्रचलित मत के विरुद्ध मगहर बतलाया --