इस कायापलट को संतों ने बहुत बड़ा महत्व दिया है और यदि सच पूछा जाय तो इस प्रकार के एक नवीन जीवन का प्राप्त कर लेना ही संतों की साधना की सबसे बड़ी विशेषता है । ऐसे जीवन की दशा को उपलब्ध कर मनुष्य पूर्णत: और का और हो जाता है । उसका दृष्टिकोण आध्यात्मिक रूप ग्रहण कर लेता है, उसकी सारी मनोवृत्तियाँ संतुलित बन जाती हैं और उसके जीवन के अंतिम छोर के परमतत्त्व के मूल स्रोत के साथ सदा जुड़े रहने के कारण उसकी किसी भी चेष्टा में संकीर्णता के भाव लक्षित नहीं होते। उसके सारे कार्य सहज भाव के साथ होते रहते हैं, किंतु उनका मूल्यांकन नितान्त भिन्न प्रकार से होने लगता है । उसके सभी प्रात्मीय बन जाते हैं किंतु किसी भी व्यक्ति के साथ उसका विशेष रागात्मक सम्बन्ध नहीं रह जाता और न उसी प्रकार किसी अन्य के प्रति उसमें विद्वेष का ही भाव रहा करता है । वह विश्व के कल्याण में अपना भी कल्याण मानता है, सबके साथ निर्वैर भाव का बर्ताव करता है और प्रवृत्ति एवं निवृत्ति दोनों के बीच का मध्यम मार्ग स्वीकार कर लेता है । ऐसा संत, वास्तव में परमात्मा स्वरूप ही बन जाता है और उसके व्यवहार म कभी विधि-निषेध का भी कोई प्रश्न नहीं उठा करता । कबीर न ऐसे संतों की ही परिभाषा बतलाते हुए कहा है कि "ये लोग निबँरी, निष्काम तथा परमात्मा में अनुरवित और विषयों के प्रति अनासक्ति का भाव रखनेवाले हुआ करते हैं।” इनके अस्तित्व के कारण समाज का नैतिक स्तर ऊँचा उठ जाता है और इनके विचार-स्वातंत्र्य एवं हृदय को सच्चाई के प्रभाव में उसके भीतर आत्मिक बल का संचार हो पाता है। ऐसे व्यक्तियों के शील व सदाचार की निर्मलता उसके सामूहिक जीवन को भी क्रमशः परिष्कृत करने लगती है और इस प्रकार उसके द्वारा भूतल पर स्वर्ग लाने का आदर्श भी कोरा स्वप्न ही नहीं रह जाता।
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