पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पूर्ण 'संत' का आदर्श ही वास्तव में संतों की सबसे बड़ी देन है जिसके महत्व को भली भांति हृदयंगम न कर सकने के कारण हम बहुधा उरकी उपेक्षा कर बैठते हैं। हम इस आदर्श के रहस्य को कभी समझने का भी पूरा प्रयत्न नहीं करते और न उसे कभी अपने लिए अनुभवगम्य ही मानते हैं। हमारी मनोवृत्ति का झुकाव किसी आदर्श को आत्मसात् करने की जगह उसके प्रति अवतारोपासना अथवा वीर- पूजा के भाव प्रदर्शित करने की अोर ही अधिक दीख पड़ता है और हम अपने आप को उस तक कार उठाने की अपेक्षा उसी को अपने स्तर तक लाना अधिक पसंद करते हैं। हम ऐसे आदर्शों को अपनी कल्पना-द्वारा सदा सजीव एवं सक्रिय मानते हुए उसकी दयालुतादि गुणों में पूरी आस्था रखने लगते हैं और चाहते हैं कि हमारे सर्व प्रकार से अकर्मण्य रहते हुए भी, वे हमें अपनी भुजाओं-द्वारा ऊपर उठाकर अपनी स्थिति तक पहुंचा देंगे । संतों के अनुसार इस प्रकार की मनोवृत्ति अक्षम्य है । उन्हें न तो इस अवतारवाद पर किसी प्रकार का विश्वास है और न वे किसी परलोकवाद में ही आस्था रखते हैं, अपने हाथों अपना उद्धार करने के वे प्रवल समर्थक हैं और वे किसी काल्पनिक लोक के साथ सम्बन्ध स्थापित करने मात्र में ही कोई कल्याण नहीं देखत । डॉ० बड़थ्वाल ने संतों की इन विशेषताओं पर यथेष्ट बल देकर नहीं लिखा है प्रत्युत, उन्हें अधिकतर धार्मिक सुधारकों के रूप में ही स्वीकार कर लिया है । संतों की आध्यात्मिक देन चाहे जो कुछ भी कही जा सके उनकी सामाजिक देन भी किसी प्रकार कम नहीं है और उनकी रचनाओं पर इस धारणा के साथ विचार करने पर ही, हमें जान पड़ेगा कि उनका महत्व विश्वकल्याण की दृष्टि से भी बहुत बड़ा कहा जा सकता है। ५. संत साहित्य का अध्ययन और डा. बड़थ्वाल डा० बड़थ्वाल का कार्य संत-साहित्य के अध्ययन की प्रगति म