( ४३ ) ( Obscure Religeous Cults etc.) द्वारा अब यह भी प्रतिपादित किया जाने लगा है कि जो विचारधारा' सिद्धों व नाथों की रचनाओं में प्रवाहित होती हुई हिंदी के संत कवियों की बानियों में दीख पड़ती है वही बँगला भाषा के वैष्णव सहजिया तथा बाउलों की रचनाओं में भी काम करती हुई जान पड़ती है। डा० बड़थ्वाल के समय तक इस प्रकार के विचार नहीं प्रगट किये जा सके थे । वर्तमान खोजों तथा अध्ययनों के आधार पर यह धारणा क्रमशः निश्चित होती जा रही है कि संत साहित्य का एक अविकसित रूप हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रारंभिक युग में भी वर्तमान था। विक्रम की आठवीं-नवीं शताब्दी के अनीश्वरवादी बौद्ध सिद्धों ने जिस सहज साधना को अपनाया था वह क्रमशः ईश्वरवादी नाथ-पंथियों की योगसाधना से अनेक बातों में, अभिन्न रही और उन दोनों पद्धतियों का ही 'विकसित रूप' हमें इन संतों में आ कर दृष्टिगोचर हुआ । इतना ही नहीं, उक्त बौद्ध सिद्धों का विचार-स्वातंत्र्य उनकी खरी आलोचना व विचित्र कथन-शैली भी, क्रमशः उसी प्रकार इन तक विक- सित होती आई है । सिद्धों तथा नाथों के बीच की कोई अन्य कड़ी लक्षित नहीं होती, किंतु नाथों एवं संतों के मध्यवर्ती काल में विभिन्न वैष्णव संप्रदाय, सूफ़ी संप्रदाय तथा कश्मीर के शैव संप्रदाय जैसे कुछ अन्य वर्ग भी आते हैं जिनसे उक्त प्रकार की बातों के विकास में निरंतर सहायता मिलती जाती है । अंत में महाराष्ट्रीय नारकटी संप्रदाय के ज्ञानदेव, नामदेव, आदि के समय तक उनमें प्रवाहित भावधारा बहुत कुछ निखर जाती है और स्वा० रामानंद तक आते-आते उसकी रूपरेखा प्रायः निश्चित भी हो जाती है। उस समय से कबीर उसे अपने ढंग से अपना कर व्यक्त करना आरंभ करते हैं और उनके आदर्श पर चलने- वाले संतों की एक परंपरा चल निकलती है जो किसी न किसी रूप में अभी आज तक वर्तमान रहती आई है। कबीर के अनंतर आने-