( ४४ ) बाले प्राय: सभी प्रमुख संतों ने उनका पथ-प्रदर्शन स्वीकार किया है और न्यूनाधिक उनकी ही विचारधारा के आदर्शो पर चल कर उन्होंने अपनी रचनाएं भी की हैं। कबीर ने कदाचित कोई भी नवीन पंथ चलाना नहीं चाहा था। परंतु गुरु नानकदेव के समय से भिन्न-भिन्न पंथों व संप्रदायों का भी निर्माण होने लगा और विक्रम की बीसवीं शताब्दी तक पहुँचते-पहुँचते इन संतों के नामों पर प्रचलित उक्त संस्थाओं ने अपने मूलस्रोतों की ओर समुचित ध्यान देना छोड़ दिया । इस कारण तुलसी साहब जैसे कुछ सुधारवादी संतों को इस बात की निंदा तक करनी पड़ी और तब से इस प्रकार के वर्ग भी, कुछ सजग व सावधान होते हुए से दीख पड़ते हैं संतों की इस परंपरा का महत्व अभी तक केवल सांप्रदायिक व साहित्यिक क्षेत्रों तक में ही ढूंढा जाता रहा और डा० बड़थ्वाल ने भी इसी कारण, अपने विषय को केवल उतने में ही सीमित रख कर 'निर्गुण संप्रदाय' पर विचार किया था। परंतु संतों की क्रमश: अधि- काधिक संख्या में उपलब्ध होती जानेवाली कृतियों तथा जीवनियों पर कुछ विशेष ध्यान देने से, अव यह भी प्रतीत होने लगा है कि उनके विविध सिद्धांतों एवं साधनाओं पर, यदि हम चाहें तो, कुछ और व्यापक रूप से भी विचार कर सकते हैं। कबीर इन सभी संतों के प्रतिनिधि समझे जाते हैं और, कम से कम उनकी रचनाओं में व्यक्त होनेवाली शुद्धहृदयता, स्वानुभूति, निर्भयता, विचार-स्वातंत्र्य तथा सबसे बढ़ कर सच्चे सात्त्विक जीवन को अपनाने की प्रबल प्रवृत्ति हमें इन महा- पुरुषों पर अन्य दृष्टियों से भी विचार करने के लिए प्रेरित करती है तथा हमारे लिए इस बात का सुझाव भी प्रस्तुत करती है कि हम इन्हें आदर्श मानव जीवन के निर्माताओं के रूप में भी स्वीकार करें। वैदिक युग से लेकर हिंदी साहित्य के उपर्युक्त प्रारंभिक काल तक की विभिन्न साधनाओं का इतिहास हमें स्पष्ट बतलाता है कि उनकी मूल प्रेरणाओं
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