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के इतिहास में सन्तसाहित्य का स्थान भी कम ऊंचा नहीं समझा जा सकता । डा० बड़थ्वाल ने निर्गुए एवं सगुण उपासना की पद्धतियों के बीच कल्पित की जानेवाली चौड़ी खाई को बहुत अंशों में कम कर दिखाने का भी काम किया है और अपने निबन्धों-द्वारा उन्होंने यह भी सिद्ध कर दिया है कि इन दोनों का पारस्परिक भेद अधिकतर संकुचित सांप्रदायिक विचारों पर ही निर्भर है तथा प्रेमाभक्ति एवं अध्यात्मविद्या वस्तुतः एक ही साधना दो भिन्न-भिन्न रूप हैं। इस सम्बन्ध में स्वा० रामानन्द के विषय में की गई उनकी खोज तथा संतों की साम्प्रदायिक साधना को, पूर्व परम्परागत योगधारा के साथ जोड़ देने का प्रयास भी उनकी दो अन्य देनें हैं जिनके लिए हम उनके चिर- कृतज्ञ रहेंगे। बलिया वैशाष बदी -परशुराम चतुर्वेदी सं० २००७