पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/७५

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सम्पादकीय डा० बड़थ्वाल को थीसिस 'दि निर्गुए स्कूल अाफ् हिन्दी पोएट्री' के हिन्दी रूपान्तर को आवश्यकता, हिंदी के माध्यम से सन्तकाव्य का विशेष अध्ययन करनेवालों को बहुत दिनों से अनुभूत हो रही थी और इस सम्बन्ध में मैंने स्वयं ही डा० बड़थ्वाल जी से बातें की थी । यदि वे हमारे बीच कुछ दिनों और रह पाते, तो समस्त पुस्तक उन्हीं के द्वारा हिंदी में रूपान्तरित होकर कभी को हमारे बीच आ गई होती, किन्तु ऐसा नहीं होना था। उनके निधन के उपरान्त उसकी आवश्यकता और भी बढ़ती गई; क्योंकि उसका अंग्रेजी रूप भी समाप्तप्राय हो गया और उसके पुनर्मुद्रण के सम्बन्ध में भी अनिश्चियता ही प्रतीत होने लगी। लखनऊ विश्वविद्यालय की 'रजत जयन्ती' के अवसर पर आयोजित हस्तलिखित ग्रंथ-प्रदर्शिनी में एक दिन बड़थ्वाल जी के सम्बन्धी श्री दौलतराम जुयाल जी से चर्चा हुई और मैंने मन में यह निश्चय कर लिया कि मैं यह कार्य प्रारम्भ करूं । इधर जुयाल जी से 'अवध पब्लिशिंग हाउस' के अध्यक्ष श्री भृगुराज जी भार्गव से बातें हुई और उन्होंने उनके समस्त ग्रंथों के प्रकाशन एवं उनके परिवार को आर्थिक सहायता का भार इस शर्त पर ले लेना स्वीकार किया कि मैं उनका सम्पादन कर दू । अतः मुझे समस्त कार्य छोड़कर इसे अंगीकार करना पड़ा, जिसे मैं अपना पावन कर्तव्य तथा गौरव समझता हूँ। अनुवाद का कार्य सबसे पहला था । किन्तु जुयाल जी से पूछताछ करने