पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/७६

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२ पर ज्ञात हुआ कि इस कार्य को श्री परशुराम चतुर्वेदी जी ने पहले हो से ले रखा था। अतः यह बड़ी प्रसन्नता की बात हुई कि जो कार्य में इतनी शीघ्रता से न कर पाता, वह शीघ्र ही सम्पन्न हो डा० बड़थ्वाल ने अपनी मूल अंग्रेजी पुस्तक के प्रथम, द्वितीय और षष्ठ अध्यायों का अनुवाद स्वयं ही कर लिया था और जो 'नागरी- प्रचारिणी पत्रिका' में पन्द्रहवें भाग में निकल भी चुके थे। ये अध्याय प्रस्तुत पुस्तक के क्रमशः प्रथम, द्वितीय और तृतीय अध्यायों के रूप में आये हैं। अतः रह जानेवाले अध्याय तृतीय, चतुर्थ और पंचम थे, जिनका अनुवाद श्री परशुराम जी चतुर्वेदी ने किया है और जो इस पुस्तक के चतुर्थ, पंचभ और षष्ठ अध्यायों के रूप में संयोजित हुए हैं। इस प्रकार प्रस्तुत पुस्तक के अध्यायक्रम में भी तो अन्तर है ही साथ ही साथ प्रथम तीन अध्यायों को सामग्री में बड़ा अन्तर है, क्योंकि डा० बड़थ्वाल ने उसके उपरान्त प्राप्त सूचना और अजित ज्ञान के आधार पर उनमें ययावश्यक परिवर्तन, संशोधन एवं विस्तार कर दिया था अतः यह तीन अध्याय अनुवादमात्र ही नहीं कहे जा सकते। यदि शेष तीन अध्याय और इस प्रकार समस्त पुस्तक उनके द्वारा हिन्दी में हमारे सामने आ सकती, तो उसका मूल्य बहुत अधिक होता । पर ऐसा न हो सका, फिर भी यह हर्ष की ही बात है कि इसके शेष अनुवाद का कार्य सन्त-साहित्य के मर्मी और विशेषज्ञ श्री परशुराम चतुर्वेदी जी ने किया है । और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने इसकी एक विस्तृत भूमिका भी लिख दी है जिसमें सन्तसाहित्य के अध्ययन का विकास, तथा डा० बड़थ्वाल के ग्रंथ की परिचयात्मक आलोचना भी है । आलोचना में दृष्टिकोए का अन्तर सदा ही रहा करता है । अतः कहीं-कहीं उनके विचार से डा० बड़थ्वाल का मत समीचीन नहीं ठहरता । मैं इस सम्बन्ध में प्रत्यालोचना के झमेले में न पड़कर इतना