पहला अध्याय ३ प्रेरित विनाशकारी हाथों ने वही दशा करने का आयोजन किया जो उनसे अाक्रांत और देशों की हुई थी । नर-नारी, बाल-वृद्ध, विद्या-भवन- पुस्तकालय, देवा जय और कलाकृतियाँ कोई भी इतनी पवित्र न समझी गई कि नाश के गह्वर में जाने से बच सकतीं । यद्यपि हिंदुओं ने आसानी से पराजय स्वीकार न की और के अंत तक पद-पद पर दृढ़ता से विरोध करते रहे, तथापि उनकी निश्छल निर्भयता, धर्मयुद्ध की भावना, पराजित शत्रु के प्रति क्षमाशील उदारता तथा अनेक अंधविश्वासों ने मिलकर उनकी पराजय का कारण उपस्थित कर दिया और उन्हें काल की विपरीतता के आगे सिर झुकाना पड़ा। महमूद गजनवी के बारह और मुहम्मद गोरी के दो-तीन अाक्रमण प्रसिद्ध ही हैं । गजनवी के साथ अल-बेरूनी नामक एक प्रसिद्ध इतिहास- कार आया था। उसने अपने आश्रयदाता के संबंध में लिखा है कि उसने देश के वैभव को पूरी तरह से मटियामेट कर दिया और अचरज के वे कारनामे किए, जिनसे हिंदू धूल के चारों ओर फैले हुए कण मात्र, अथवा लोगों के मुंह पर की पुराने जमाने की एक कहानी मात्र रह गए। वास्तविक युद्ध में तो असंख्य वीरों की मृत्यु होती ही थी, उनके अतिरिक्त भी प्रायः प्रत्येक नृशंस विजेता हजारों लाखों व्यक्तियों की हत्या कर डालता था और हजारों को गुलाम बना लेता था। उनकी लूट-पाट का तो अनुमान ही नहीं लगाया जा सकता। सरस्वती और संस्कृति के केन्द्र भी अछूते न छोड़े गए । जब वि० सं० १२५४ (सन् ११६७) में मुहम्मद बिन-बख़्यार ने बिहार की राजधानी पर अधिकार किया तब उसने वहाँ के बृहद् बौद्ध-विहार को ध्वंस कर दिया, वहाँ के जिस निवासी को पकड़ पाया, तलवार के घाट उतार दिया और
- ईश्वरीप्रसाद की 'मेडीवल इंडिया', पृ० ६२ में दिया हुआ
अवतरण।