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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/८८

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६ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय की अपेक्षा शरीर के हनन को श्रेयस्कर समझा, और वह मरकर इतिहास के पृष्ठों में अमर हो गया ।। इस प्रकार पठानी सल्तनत के समय तक श्रादरास्पद राष्ट्रजन (सिटिज़न ) के समस्त अधिकारों से हिंदू जनता सर्वथा वंचित थी। उसका निराशामय जीवन विपत्ति की एक लंबी गाथा मात्र रह गया था । कोई ऐसी पार्थिव वस्तु उसके पास न रह गई थी, जो उसके अनुभव की कटुता में मिठास का जरा भी सम्मिश्रण कर सकती । उसके लिये भविष्य सर्वथा अंधकारमय हो गया था। अंधकार की उस प्रगाढ़ता में प्रकाश की क्षीण से क्षीण रेखा भी न दिखलाई पड़ती थी। किंतु हिंदू-धर्म को केवल मुसलमानों के ही नहीं, स्वयं हिंदुओं के अत्याचार से भा बचाना आवश्यक था। अपने ऊपर अपना ही यह अत्याचार हिंदू-मुस्लिम-संघर्ष से प्रकाश में आया। ३. वर्ण व्यवस्था हिंदुत्व ने इस बात का प्रयत्न किया है कि सामाजिक' की विषमता हो अथवा राजनीतिक, - कोई भी धर्म व्यक्तिगत छीनाझपटी का विषय होकर सामाजिक शांति में बाधक न बने। इस दृष्टि से उसमें : मनुष्य-मनुष्य के कार्यों की मर्यादा. पहले हो से प्रतिष्टित कर दी गई है। यही वर्ण व्यवस्था है, जिसमें गुणानुसार कर्मों का, विभाग किया गया है। इसमें संदेह नहीं कि मनुष्य के गुण बहुधा परिस्थितियों के ही परिणाम होते हैं । अतएव धीरे-धीरे वर्ण का जन्म से ही माना जाना स्वाभाविक था, क्योंकि परिस्थितियाँ जन्म से ही प्रभाव डालना प्रारंभ कर देती हैं । परन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं कि जन्म से पड़नेवाला प्रभाव माता-पिता के गुणों का ही होगा अथवा यह कि जन्म से पड़नेवाले प्रभाव अन्य प्रबलनर प्रभावों के आगे मिट नहीं सकते । परंतु धीरे-धीरे भारतीय इस बात को भूल गए कि कभी- + ईश्वरीप्रसाद-“मेडीवल इंडिया", पृष्ठ ४८-१८२ । +