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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/९०

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हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय क्या उचित है ? प्रत्येक विचारशील व्यक्ति के आगे सारी परिस्थिति इस महान् प्रश्न के रूप में उठ खड़ी हुई। शूद्रों के लिये तो यही एकमात्र समस्या थी जिसकी ओर उच्च वर्ण के लोग गहरे प्रहारों के द्वारा रह रहकर उनका ध्यान आकृष्ट किया करते थे । सतारा के संत नामदेव को लोगों ने किस प्रकार, यह मालूम होने पर कि वह जात का छोपी है, एक बार मंदिर से निकाल बाहर किया था, इस बात का उल्लेख स्वयं नामदेव ने अपने एक पद में किया है। राजनीतिक उत्पातों के कारण जो अव्यवस्था और हाहाकार उत्तर भारत में मचा हुआ था, उससे अभी दक्षिण बचा था। राजनीतिक दृष्टि से वहाँ कुछ शांति का साम्राज्य था और धार्मिक ४, भगवच्छर- जीवन नवीन जागर्ति पाकर अत्यंत कर्मण्य हो उठा णागति था । बुद्ध के निरीश्वरवादी सिद्धांतों ने जन समाज के हृदय में जो शून्यता स्थापित कर दी थी, उसकी पूर्ति शंकराचार्य का प्रतिवाद भी न कर सका था। अतएव लोगों की रुचि फिर से प्राचीन ऐकांतिक धर्म की ओर मुड़ रही थी जिसका प्रवर्तन संभवतः बदरिकाश्रम में हुआ था। उपास्य देव को ऐकांतिक प्रेम का आलंबन बनानेवाले इस नारायणी धर्म में जनता ने अपने हृदय का आकर्षण पाया। गोपाल कृष्ण और वासुदेव कृष्ण ने मिलकर इसमें एक ऐसे स्वरूप को जनता के सामने रखा था, जिसमें प्रेम-प्रवणता और नीति-निपुणता की एक ही व्यक्ति में वह अनुपम संसृष्टि हो गई, जिसकी ओर दृष्टिपात करते ही जन-समुदाय के हृदय में प्रेम और विश्वास एक साथ जागरित हो गया। कृष्ण ने जनता के हृदय के कोमल तंतुओं का ही स्पर्श नहीं किया था,

  • हँसत खेलत तेरे देहुरे पाया। भक्ति करत नामा पकरि उठाया ।

हीनड़ी जाति मेरी जाद भराया। छीपे के जनमि काहे को आया । -आदि-ग्रंथ, पृष्ठ ६२६