पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/९१

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पहला अध्याय 8 . उनके हृदय में अपनी सुरक्षता की दृढ़ भावना भी बद्धमूल कर दी थी। कृष्ण के प्रेम में जनता ने अर्जुन के समान ही अपने आपको सुरक्षित समझा । ईसा के चार सौ वर्ष पहले चंद्रगुप्त मौर्य की सभा में रहनेवाले यवन राजदूत मेगास्थनीज़ ने जिस हिरंक्लीज' ( हरिकृष्ण ) को 'उन शौरसेनियों का उपास्य देव बतलाया जिनके देश में मथुरा नगरी अवस्थित है और यमुना प्रवाहित होती है, वह कृष्ण ही था । पांचरात्रों के द्वारा गृहीत होने के कारण यह ऐकांतिक धर्म पांचरात्र और सात्वतों के कारण सात्वत धर्म कहलाया। नारायण के साथ एकरूप होकर, कृष्ण विष्णु के अवतार माने जाने लगे थे इसलिए वह वैष्णव धर्म कहलाया। इनके भगवान् या भगवत् कहलाने से इस धर्म की भागवत संज्ञा भी हुई । ईसा से १४० वर्ष पूर्व तक्षशिला के यवन राजा एंटि- पाल्काइडस का राजदूत, डिअोस का पुत्र हेलिप्रोडोरस जो विदिशा के राजा काशिपुत्र भागभद्र की सभा में रहता था, भागवत था। उसने 'देवदेव वासुदेव का' गरुडध्वज-स्तंभ बनावाया था जिस पर उसने अपने आपको स्पष्टतया भागवत लिखा था। गुप्त-राजकुल, जिसका समय चौथी से आठवीं शताब्दी तक है, वैष्णव था । गुप्त राजा अपने आपको परम-भागवत कहा करते थे। उनके सिक्के तथा बिहार, मथुरा और भिटारी के उनके शिलालेख इस बात के साक्षी हैं । चोल मंडल ( कारोमंडल ) तट पर बेंगी के पल्लवों के शिलालेखों . ॐ देवदेवस वासुदेवन गरुड़ध्वजे अयं कारिते इअ हेलिओदोरेण भागवतेन दियसपुत्रेण तखसिलाकेन योनदूतेन प्रागतेन महाराजस अंतलितस उपंता सकासं रजो कासिपुत्रस भागभद्रस त्रातारस । + कनिंघम--'प्राकॅलाजिकल सर्वे', भाग १, प्लेट १७ और ३० ।