पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/९३

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पहला अध्याय ११ (वि० सं० १०४२-१०८७; सन् १८५-१०३० ई०) परम कृष्णभक्त थे कृष्ण के जन्म-सम्बन्धी समस्त स्थानों के उन्होंने दर्शन किए थे। मथुरा- वृन्दावन, द्वारका आदि स्थानों की यात्रा करके जब वे लौटे तो अपने नवजात पौत्र का उन्होंने यमुना-तट-विहारी की यादगार में यामुन नाम रखा । यामुनाचार्य अपने पितामह से भी बड़ा पंडित हुआ । वह चोजराज का पुरोहित था। राजा ने एक बार सांप्रदायिक शास्त्रार्थ में अपना राज्य ही दाँव पर रख दिया था। उस अवसर पर विजय प्राप्त कर यामुन ने अपने स्वामी की भान रखी थी। पितामह के मरने पर यामुन संन्यासी हो गया और बड़े उत्साह से वैष्णव धर्म का प्रचार करने लगा। परन्तु वैष्णव धर्म को व्यवस्थित करने में इन दोनों से अधिक सफलता रामानुज को हुई जो बाद को नामानुसार लक्ष्मण और शेषनाग के अवतार माने जाने लगे। रामानुज भी दूसरी शाखा से नाथमुनि के प्रपौत्र थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा शांकर अद्वैत के प्राचार्य यादवप्रकाश के यहाँ हुई थी। अद्वैतवाद उनके मनोनुकूल न था, इसलिये यादवप्रकाश से उनकी निभी नहीं। यामुनाचार्य ने उन्हें अपने पास बुलाया, परन्तु उन्हें श्री संप्रदाय में दीक्षित करने के लिये वे जीवित न रह सके । रामानुज को केवल उनके शव का दर्शन हुआ। श्री वैष्णव संप्रदाय की आधारशिला विशिष्टाद्वैत को, जिसे नाथमुनि ने तैयार किया था, रामानुज ने दृढ़ रूप से आरोपित कर दिया। वेदांत सूत्र पर उनका श्रीभाष्य बहुत प्रसिद्ध हुआ । गीता और उपनिषदों के भी उन्होंने विशिष्टवती भाग्य किए। इन भाष्यों में उन्होंने शंकर के मायावाद का खंडन किया और माया को ब्रह्म में निहित मानकर उसमें गुणों का आरोप कर लिया जिससे तत्त्व रूप से भी भक्ति के लिये दृढ़ अाधार निकल आया । यदि ब्रह्म में ही गुणों का अभाव है, वह तत्त्वतः करुणावरुणालय नहीं है, तो ईश्वर ही में गुणों का अारोप कहाँ से हो सकता है ? भक्त का उद्धार ही कसे हो सकता