१२ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय है ? शंकर के रूबे अतवाद से ऊबे हुए लोगों को यह विचारधारा अत्यंत आकर्षक प्रतीत हुई। बड़े-बड़े प्रतिवादियों को शास्त्रार्थ में रामानुज के आगे सिर झुकाना पड़ा । नृपतिगण उनके शिष्य होने लगे। उन्होंने बीसियों मंदिर बनवाए और शीघ्र ही उनके भक्तिमूलक सिद्धांतों का जन समाज में प्रचलन हो गया। यादवाचल पर नारायण की मूर्ति की स्थापना के साथ रामानुज ने भक्ति की जिस धारा की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया वह समय पाकर देश को एक अोर से दूसरे छोर तक प्लावित करती हुई बहने लगी। उन्नतमनाओं का एक समूह, जिनके हृदय में परमात्मा की दिव्य- ज्योति अपनी पूर्ण आभा से जगमगा रही थी, इस प्लावन के विशेष कारण हुए। रामानुज का समय बारहवीं शताब्दी माना जाता है। रामानुज ही के समय में निंबार्क ने अपने में भेदाभेद के सिद्धान्त को लेकर वैष्णवमत की पुष्टि की। निबार्क भागवत-कुल में उत्पन्न हुए थे। उन्होंने राधाकृष्ण की उपासना को प्राधान्य दिया और वृन्दावन में आकर प्राचीन स्मृतियों के बीच अपने राधाकृष्णमय जीवन को सार्थक समझा। कर्णाटक और गुजरात में आनंदतीर्थ (मध्व ) ने वि० सं० ११५७ से १३३२ (सन् १२०० से १२७५ ई० ) के बीच अपने द्व तवाद के द्वारा उपास्य और उपासक के लिए पूर्ण स्थूल आधार निकालकर वैष्णव भक्ति का प्रचार किया। महाराष्ट्र में पंढरपुर का विठोवा का मन्दिर वैष्णव धर्म के प्रचार का केन्द्र हो गया। ग्यारहवीं शताब्दी में मुकुंदराज ने अब तमूलक सिद्धांतों को लेकर वैष्णव धर्म का समर्थन किया। नामदेव, ज्ञानदेव आदि पर स्पष्ट ही उसका प्रभाव पड़ा था। बंगाल में चैतन्यदेव (सं० १५४२-१५६० ) और उनकी शिष्य-
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